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प्रेमचंद

 

 

मुंशी प्रेमचंद्र जी लिखी गयी कुछ रोचक कहानियाँ

गुल्ली-डंडा.. 1

ज्योति... 11

दिल की रानी... 23

धिक्कार. 43

 

 

 

 

 

गुल्ली-डंडा

 

 

मारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया।

विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।

वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।

मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।

एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।

मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।

गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।

तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’

हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।

न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’

हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।

मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’

हॉँ, मेरे गुलाम हो।

मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!

घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।

अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।

वह तो पेट में चला गया।

निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’

अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।

जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।

मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।

गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।

मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

 

2

 

न्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और  उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियॉँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की सैर करने निकला। ऑंखें किसी प्यासे पथिक की भॉँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहॉँ और कुछ परिचित न था। जहॉँ खँडहर था, वहॉँ पक्के मकान खड़े थे। जहॉँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियॉँ बॉँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।

सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने का बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और  अधिकार के आवरण में।

जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहॉँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?

एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?

मैंने यों ही कहा-हॉँ-हॉँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।

हॉँ, है तो।

जरा उसे बुला सकते हो?’

लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पॉँच हाथ काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?

गया ने झुककर सलाम किया-हॉँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?

बहुत मजे में। तुम अपनी कहा।

डिप्टी साहब का साईस हूँ।

मतई, मोहन, दुर्गा सब कहॉँ हैं? कुछ खबर है?

मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?’

मैं तो जिले का इंजीनिया हूँ।

सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?

अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?’

गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।

आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दॉँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।

गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहॉँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में  मगन था।

मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।

गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था;  नहीं मेरी क्या गिनती?

मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?

गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।

वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।

इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहॉँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बाऍं कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहूँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धॉँधलियॉँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था। हालॉँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टॉँड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियॉँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ  से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाऍं, कभी आगे, कभी पीछे।

आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धॉँधली की-गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई; लेकिन लगी नहीं।

गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।

न लगी होगी।

डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’

नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?’

बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।

सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज की क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरा का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दॉँव देने आता है।

गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गई, लग गई। टन से बोली।

मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा-तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।

टन से बोली है सरकार!

और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?

मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।

हॉँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।

मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धॉँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दॉँव देना तय कर लिया।

गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।

मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।

नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दॉँव ले लो।

गुल्ली सूझेगी नहीं।

कुछ परवाह नहीं।

गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टॉँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दॉँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिश्च दिया।

एक दॉँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।

नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।

तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?’

खेलने का समय कहॉँ मिलता है भैया!

हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला-कल यहॉँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।

मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टॉँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।

पदने वालों में एक युवक ने कुछ धॉँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।

     मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धॉँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।


ज्योति

 

 

वि

धवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था। जब बहुत जी जलता तो अपने मृत पति को कोसती-आप तो सिधार गए, मेरे लिए यह जंजाल छोड़ गए । जब इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किसलिए किया । घर में भूनी भॉँग नहीं, चले थे ब्याह करने ! वह चाहती तो दूसररी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-सुनने में भी बुरी न थी । दो-एक आदमी तैयार भी थे, लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर, जो अब सोलह साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे । अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर देती, वही रोटी-कपड़ा दे देता। जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर वह कहीं बैठ जाए, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन बच्चों के होते इसे यह क्या सूझी ।

     मोहन भरसक उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों-भैसों की सानी-पानी, दुहना-मथना यह सब कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी का यह भार पटककर क्यों चला गया, उसे यही गिला था । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया । न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का। इस घर में क्या आयी, मानो भट्टी में पड़ गई । उसकी वैधव्य-साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व-सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गई थी । पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पॉँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके सब उसके हाथ से निकल गए ।

     उसी मुहल्ले में उसकी बिरादरी में, कितनी ही औरतें थीं, जो उससे जेठी होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी-सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं, इसलिए अब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर। वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनंद मिलता था । उसकी  वंचित लालसा, जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे संभव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया बूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साँड़ बनने पर उतारू हो गया है ।

     मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा-कैसा साँड़! बात क्या है ?

     तू रूपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता? उस पर कहता है कैसा साँड़? तुझे लाज नहीं आती? घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े रँगाए जाते है।

     मोहन ने विद्रोह का भाव धारण कियाअगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे, तो लाऊँगा ? अपनी धोती रँगने को दी, उससे रँगाई मांगता ?

     मुहल्ले में एक तू ही धन्नासेठ है! और किसी से उसने क्यों न कहा?’

     यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।

     तुझे अब छैला बनने की सूझती है । घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया?’

     यहाँ पान किसके लिए लाता ?’

     क्या तेरे लिखे घर में सब मर गए ?’

     मैं न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।

     संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?’

     शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।

     बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे में उन साधनों का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दी । उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी चढ़ती जवानी थी । तीन बच्चे भगवान् ने उसके गले मढ़ दिए, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज वह भी ओठ लाल किए, पाँव में महावर लगाए, अनवट-बिछुए पहने मटकती फिरती । यह सब कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है! रुपिया उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, आैर बूटी बुढ़िया है!

     बोली-हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे चीथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बड़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती तो, तुम लोगों का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।

     मोहन ने डरते-डरते कहामैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मा!

     कैसी बात ?’

     सगाई की।

     अगर रुपिया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। राँड़ से इतना भी नहीं देखा जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।

     मोहन ने व्यथित कंठ में कहा,अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जाएगी, तुम अकेली पड़ जाओगी । इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।

     तू आज से यहीं आँगन में सोया कर।

     और गायें-भैंसें बाहर पड़ी रहेंगी ?’

     पड़ी रहने दे,  कोई डाका नहीं पड़ा जाता।

     मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?’

     हाँ !

     तो मैं यहाँ न सोऊँगा।

     तो निकल जा घर से।

     हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा।

     मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा-मुझे भूख नहीं है! बूटी उसे मनाने न आयी । मोहन का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता। उसका घर है, ले ले। अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा। रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर ही दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव वसंत की भाँति आकर उसे पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा। कोई काम करना होता, पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता। सोचता, उसे क्या, दे दे कि वह प्रसन्न हो जाए! अब वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाए ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को मना किया है? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में केसी-कैसी बातें हुई थीं । मोहन ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो, तुम्हारे सौ गाहक निकल आएँगे। मेरे घर में तुम्हारे लिए क्या रखा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह अब भी उसके प्राण में बसा हुआ था-मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको । परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करो, तब भी मोहन हो । उसी रुपिया से आज वह जाकर कहे-मुझे अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है!

     नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं है । वह रुपिनया के साथ माँ से अलग रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मुहल्ले में सही। इस वक्त भी रुपिया उसकी राह देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है। कहीं अम्मां सुन पावें कि वह रात को रुपिया के द्वार पर गया था, तो परान ही दे दें। दे दें परान! अपने भाग तो नहीं बखानतीं कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है। न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है। वह जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है। बस, यही तो।

    चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। रुपिनया आ रही है! हा; वही है।

    रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली-सो गए क्या मोहन ? घड़ी-भर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। आये क्यों नहीं ?

    मोहन नींद का मक्कर किए पड़ा रहा।

    रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा-क्या सो गए मोहन ?

    उन कोमाल उंगलियों के स्पर्श में क्या सिद्घि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा उन्मत्त हो उठी। उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने के लिए उछल पड़े। देवी वरदान के लिए सामने खड़ी है। सारा विश्व जैसे नाच रहा है। उसे मालूम हुआ जैसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह एक मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद में चिपटा हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।

     रुपिया ने कहा-अभी से सो गए क्या जी ?

     मोहन बोला-हाँ, जरा नींद आ गई थी रूपा। तुम इस वक्त क्या करने आयीं? कहीं अम्मा देख लें, तो मुझे मार ही डालें।

     तुम आज आये क्यों नहीं?’

     आज अम्माँ से लड़ाई हो गई।

     क्या कहती थीं?’

     कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी।

     तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्यों चिढ़ती हो ?’

     अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा? वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं। अब मुझे तुमसे दूर रहना पड़ेगा।

     मेरा जी तो न मानेगा।

     ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा।

     तुम मेरे पास एक बार रोज आया करो। बस, और मैं कुछ नहीं चाहती।

     और अम्माँ जो बिगड़ेंगी।

     तो मैं समझ गई। तुम मुझे प्यार नहीं करते।

     मेरा बस होता, तो तुमको अपने परान में रख लेता।

     इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई।

 

2

 

मो

हन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनंद का सागर-सा भरा हुआ था। वह सोहन को बराबर डाँटता रहता था। सोहन आलसी था। घर के काम-धंधे में जी न लगाता था । मोहन को देखते ही वह साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा।

    मोहन ने मुस्कराकर कहा-धोती बहुत मैली हो गई है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं देते?

     सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गंध आई।

     धोबिन पैसे माँगती है।

     तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?’

     अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ?’

     तो मुझसे ले लो!

     यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी। सोहन प्रसन्न हो गया। भाई और माता दोनों ही उसे धिक्कारते रहते थे। बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला। इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चल।

      मोहन ने कहा-रहने दो, मैं इसे लिये जाता हूँ।

      सोहन ने पगहिया मोहन को देकर फिर पूछा-तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?

     जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया था। इसमें क्या रहस्य है, यह मोहन की समझ में नहीं आया। बोला-आग हो तो रख आओ।

     मैना सिर के बाल खेले आँगन में बैठी घरौंदा बना रही थी। मोहन को देखते ही उसने घरौंदा बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईधर में बरतन उठाने चली।

    मोहन ने पूछा-क्या खेल रही थी मैना ?

    मैना डरी हुई बोली-कुछ नहीं तो।

    तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है। जरा बना, देखूँ।

    मैना का रुआंसा चेहरा खिल उठा। प्रेम के शब्द में कितना जादू है! मुँह से निकलते ही जैसे सुगंध फैल गई। जिसने सुना, उसका हृदय खिल उठा। जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा। जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा। चारों ओर चेतनता दौड़ गई। कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं। मोहन का हृदय आज प्रेम से भरा हुआ है। उसमें सुगंध का विकर्षण हो रहा है।

मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।

     मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा-तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले।

     मैना का मन आकाश में उड़ने लगा। जब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमाचम करके पानी ले जाएगी।

     अम्माँ पैसे नहीं देतीं। गुड्डा तो ठीक हो गया है। टीका कैसे भेजूँ?’

     कितने पैसे लेगी ?’

     एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग। जोड़े तो रँगे जाएँगे कि नहीं?’

     तो दो पैसे में तेरा काम चल जाएगा?’

     हाँ, दो पैसे दे दो भैया, तो मेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाए।

     मोहन ने दो पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाए। मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया, मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया। मोहन ने उसे गोद में उठा लिया। मैना ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी। फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता देने के लिए भागी।

     उसी वक्त बूटी गोबर का झाँवा लिये आ पहुंची। मोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली-अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है। भैंस कब दुही जाएगी?

     आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया। जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई सोता-सा खुल गया हो। माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झाँवा उसके सिर से उतार लिया।

     बूटी ने कहा-रहने दे, रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ।

    तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुजला लेतीं?’

    माता का हृदय वात्सल्य से गदगद हो उठा।

तू जा अपना काम देखं मेरे पीछे क्यों पड़ता है!

     गोबर निकालने का काम मेरा है।

     और दूध कौन दुहेगा ?’

     वह भी मैं करूँगा !

     तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !

     जितना कहता हूँ, उतना कर लूँगा।

     तो मैं क्या करूँगी ?’

     तुम लड़कों से काम लो, जो तुम्हारा धर्म है।

     मेरी सुनता है कोई?’

तीन

 

ज मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, तो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और थोड़ी-सी मिठाई लाया। बूटी बिगड़कर बोली-आज पैसे कहीं फालतू मिल गए थे क्या ? इस  तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा?

     मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ। पहले मैं समझता था, तुम पान खातीं ही नहीं।

     तो अब मैं पान खाऊँगी !

     हाँ, और क्या! जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ?’

      बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आई, एक नन्ही-सी कोंपल थी; उसके अंदर कितना रस था। उसने मैना और सोहन को एक-एक मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी।

      मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ।

      और तू तो बूढ़ा हो गया, क्यों ?’

      इन लड़कों क सामने तो बूढ़ा ही हूँ।

      लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है।

      मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी। वह केवल मिठाई का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी। मोहन को ललचाई आँखों से देखने लगी। मोहन ने आधा लड्डू तोड़कर मैना को दे दिया। एक मिठाई दोने में बची थी। बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा-लाया भी तो इतनी-सी मिठाई। यह ले ले।

     मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा-वह तुम्हारा हिस्सा है अम्मा।

तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनंद मिलता है। उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है।

     उसने आधी मिठाई सोहन और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी। आज जीवन में पहली बार उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में मिली। पानदान में कई कुल्हियाँ हैं। और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियाँ भी हैं; ऊपर कड़ा लगा हुआ है, जहाँ चाहो, लटकाकर ले जाओ। ऊपर की तश्तरी में पान रखे जाएँगे।

     ज्यों ही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना, कत्था भरा, सुपारी काटी, पान को भिगोकर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया। उस बीड़े के रस ने जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया। मन की प्रसन्नता व्यवहार में उदारता बन जाती है। अब वह घर में नहीं बैठ सकती। उसका मन इतना गहरा नहीं कि इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाए। एक पुराना आईना पड़ा हुआ था। उसने उसमें मुँह देखा। ओठों पर लाली है। मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही पान खाया है।

     धनिया ने आकर कहा-काकी, तनिक रस्सी दे दो, मेरी रस्सी टूट गई है।

     कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव-भर के लिए नहीं है। रस्सी टूट गई है तो बनवा लो। आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से पूछा-लड़के के दस्त बंद हुए कि नहीं धनिया ?

     धनिया ने उदास मन से कहा-नहीं काकी, आज तो दिन-भर दस्त आए। जाने दाँत आ रहे हैं।

     पानी भर ले तो चल जरा देखूँ, दाँत ही हैं कि कुछ और फसाद है। किसी की नजर-वजर तो नहीं लगी ?’

     अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो?’

     चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है।

     जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है। ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या कहूँ!

     कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है।

     ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगाएगा!

     यही तो तू समझती नहीं। नजर आप ही लग जाती है।

     धनिया पानी लेकर आयी, तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली।

     तू अकेली है। आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा।

     नहीं काकी, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी मरन हो जाती।

     बूटी को आश्चर्य हुआ। रुपिया को उसने केवल तितली समझ रखा था।

     रुपिया!

     हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है। झाडू लगा देती है, चौका-बरतन कर देती है, लड़के को सँभालती है। गाढ़े समय कौन, किसी की बात पूछता है काकी !

     उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी न मिलती होगी।

     यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी! मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया। बेचारी रात-भर जागती रही। मैंने कुछ दे तो नहीं दिया। हाँ, जब तक जीऊँगी, उसका जस गाऊँगी।

     तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?’

     मैं इन बातो में नहीं पड़ती काकी! फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं चाहता ? खाने-पहनने की यही तो उमिर है।

     धनिया ने बच्चे को खटोले पर सुला दिया। बूटी ने बच्चे के सिर पर  हाथ रखा, पेट में धीरे-धीरे उँगली गड़ाकर देखा। नाभी पर हींग का लेप करने को कहा। रुपिया बेनिया लाकर उसे झलने लगी।

     बूटी ने कहा-ला बेनिया मुझे दे दे।

     मैं डुला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ?’

     तू दिन-भर यहाँ काम-धंधा करती है। थक गई होगी।

     तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे, वह बिना गाली के बात नहीं करती। मारे डर के तुम्हारे पास न आयी।

     बूटी मुस्कारायी।

     लोग झूठ तो नहीं कहते।

     मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?’

कह तो दी होगी। दूसरी लड़की होती, तो मेरी ओर से मुंह फेर लेती। मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती। इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो। हो सकता हे कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो। हाँ, यही बात है।

     आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी। ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब करेगी? शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते हैं। किसी के घर में आग लग जाए, उनसे मतलब नहीं। उनका काम तो खाली दूसरों को रिझाना है। जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाती हों कि जरा इस दूकान की सैर भी करते जाइए। ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता। नहीं, बल्कि और अच्छा लगता है। इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन नहीं चाहता कि लोग उनके रूप की बखान करें। किसे दूसरों की आँखों में छुप जाने की लालसा नहीं होती ? बूटी का यौवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई है। कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। फिर रूपा तो अभी जवान है।

     उस दिन से रूपा प्राय: दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती। बूटी ने मोहन से आग्रह करके उसके लिए अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी। अगर रूपा कभी बिना काजल लगाए या बेरंगी साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती-बहू-बेटियों को यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता। यह भेस तो हम जैसी बूढ़ियों के लिए है।

     रूपा ने एक दिन कहा-तुम बूढ़ी काहे से हो गई अम्माँ! लोगों को इशारा मिल जाए, तो भौंरों की तरह तुम्हारे द्वार पर धरना देने लगें।

     बूटी ने  मीठे तिरस्कार से कहा-चल, मैं तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ?

     अम्माँ तो बूढ़ी हो गई।

     तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं?’

     हाँ ऐसा, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी।

     बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से ददेखकर पूछा-अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर दूँ ?

     रूपा लजा गई। मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गई।

     आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा-कुछ रुपये-पैसे जुटा, मैं रूपा से तेरी बातचीत कर रही हूँ।


दिल की रानी

 

 

जि

स वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई दुनिया कौप रही थी , उन्‍हीं का रक्‍त आज कुस्‍तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्‍तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्को के आंतक से राहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्‍त से अपना कलेजा ठण्‍डा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्‍मत का फैसला सुनने के लिए खडा है।

     तैमुर ने विजय से भरी आखें उठाई और सेनापति यजदानी की ओर देख कर सिंह के समान गरजा-क्‍या चाहतें हो जिन्‍दगी या मौत

     यजदानी ने गर्व से सिर उठाकार कहा- इज्‍जत की जिन्‍दगी मिले तो जिन्‍दगी, वरना मौत।

     तैमूर का क्रोध प्रचंण्‍ड हो उठा उसने बडे-बडे अभिमानियों का सिर निचा कर दिया था। यह जबाब इस अवसर पर सुनने की उसे ताव न थी । इन एक लाख आदमियों की जान उसकी मुठठी में है। इन्‍हें वह एक क्षण में मसल सकता है। उस पर इतना अभ्‍िमान । इज्‍जत की जिदन्‍गी । इसका यही तो अर्थ हैं कि गरीबों का जीवन अमीरों के भोग-विलास पर बलिदान किया जाए वही शराब की मजजिसें, वही अरमीनिया और काफ की परिया। नही, तैमूर ने खलीफा बायजीद का घमंड इसलिए नहीं तोडा है कि तुर्को को पिर उसी मदांध स्‍वाधीनता में इस्‍लाम का नाम डुबाने को छोड दे । तब उसे इतना रक्‍त बहाने की क्‍या जरूरत थी । मानव-रक्‍त का प्रवाह संगीत का प्रवाह नहीं, रस का प्रवाह नहीं-एक बीभत्‍स दश्‍य है, जिसे देखकर आखें मु‍ह फेर लेती हैं दश्‍य सिर झुका लेता है। तैमूर हिंसक पशु नहीं है, जो यह दश्‍य देखने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दे।

वह अपने शब्‍दों में धिक्‍कार भरकर बोला-जिसे तुम इज्‍जत की जिन्‍दगी कहते हो, वह गुनाह और जहन्‍नुम की जिन्‍दगी है।

     यजदानी को तैमुर से दया या क्षमा की आशा न थी। उसकी या उसके योद्वाओं की जान किसी तरह नहीं बच सकती। पिर यह क्‍यों दबें और क्‍यों न जान पर खेलकर तैमूर के प्रति उसके मन में जो घणा है, उसे प्रकट कर दें ?  उसके एक बार कातर नेत्रों से उस रूपवान युवक की ओर देखा, जो उसके पीछे खडा, जैसे अपनी जवानी की लगाम खींच रहा था। सान पर चढे हुए, इस्‍पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल कोध्र की चिनगारियों निकल रहीं थी। यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्‍यान में कर ली और खून के घूट पीकर बोला-जहापनाह इस वक्‍त फतहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दू कि अपने जीवन के विषय में तुर्को को तातरियों से उपदेश लेने की जरूरत नहीं। पर जहा खुदा ने नेमतों की वर्षा की हो, वहा उन नेमतों का भोग न करना नाशुक्री है। अगर तलवार ही सभ्‍यता की सनद होती, तो गाल कौम रोमनों से कहीं ज्‍यादा सभ्‍य होती।

     तैमूर जोर से हसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिए। तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवाला वज्र का तडाका ।

     तातारवाले पशु हैं क्‍यों ?

     मैं यह नहीं कहता।

     तुम कहते हो, खुदा ने तुम्‍हें ऐश करने के लिए पैदा किया है। मैं कहता हू, यह कुफ्र है। खुदा ने इन्‍सान को बन्‍दगी के लिए पैदा किया है और इसके खिलाफ जो कोई कुछ करता है, वह कापिर है, जहन्‍नुमी रसूलेपाक हमारी जिन्‍दगी को पाक करने के लिए, हमें सच्‍चा इन्‍सान बनाने के लिए आये थे, हमें हरा की तालीम देने नहीं। तैमूर दुनिया को इस कुफ्र से पाक कर देने का बीडा उठा चुका है। रसूलेपाक के कदमों की कसम, मैं बेरहम नहीं हू जालिम नहीं हू, खूखार नहीं हू, लेकिन कुफ्र की सजा मेरे ईमान में मौत के सिवा कुछ नहीं है।

     उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्‍क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौतकर यजदानी के सिर पर आ पहुचा। तातारी सेना भी मलवारें खीच-खीचकर तुर्की सेना पर टूट पडी और दम-के-दम में कितनी ही लाशें जमीन पर फडकने लगीं।

     सहसा वही रूपवान युवक, जो यजदानी के पीछे खडा था, आगे बढकर तैमूर के सामने आया और जैसे मौत को अपनी दोनों बधी हुई मुटिठयों में मसलता हुआ बोला-ऐ अपने को मुसलमान कहने वाले बादशाह । क्‍या यही वह इस्‍लाम की यही तालीम है कि तू उन बहादुरों का इस बेददी से खून बहाए, जिन्‍होनें इसके सिवा कोई गुनाह नहीं किया कि अपने खलीफा और मुल्‍कों की हिमायत की?

     चारों तरफ सन्‍नाटा छा गया। एक युवक, जिसकी अभी मसें भी न भीगी थी; तैमूर जैसे तेजस्‍वी बादशाह का इतने खुले हुए शब्‍दों में तिरस्‍कार करे और उसकी जबान तालू से खिचवा ली जाए। सभी स्‍तम्‍भित हो रहे थे और तैमूर सम्‍मोहित-सा बैठा , उस युवक की ओर ताक रहा था।

     युवक ने तातारी सिपाहियों की तरफ, जिनके चेहरों पर कुतूहलमय प्रोत्‍साहन झलक रहा था, देखा और बोला-तू इन मुसलमानों को कापिर कहता है और समझाता है कि तू इन्‍हें कत्‍ल करके खुदा और इस्‍लाम की खिदमत कर रहा है ? मैं तुमसे पूछता हू, अगर वह लोग जो खुदा के सिवा और किसी के सामने सिजदा नहीं करतें, जो रसूलेपाक  को अपना रहबर समझते हैं, मुसलमान नहीं है तो कौन मुसलमान हैं ?मैं कहता हू, हम कापिर सही लेकिन तेरे तो हैं क्‍या इस्‍लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्‍ल की इजाजत देता है खुदाने अगर तूझे ताकत दी है, अख्‍ितयार दिया है तो क्‍या इसीलिए कि तू खुदा के बन्‍दों का खून बहाए क्‍या गुनाहगारों को कत्‍ल करके तू उन्‍हें सीधे रास्‍ते पर ले जाएगा। तूने कितनी बेहरमी से सत्‍तर हजार बहादुर तुर्को को धोखा देकर सुरंग से उडवा दिया और उनके मासूम बच्‍चों और निपराध स्‍त्रियों को अनाथ कर दिया, तूझे कुछ अनुमान है। क्‍या यही कारनामे है, जिन पर तू अपने मुसलमान होने का गर्व करता है। क्‍या इसी कत्‍ल, खून और बहते दरिया में अपने घोडों के सुम नहीं भिगोए हैं, बल्‍िक इस्‍लाम को जड से खोदकर पेक दिया है। यह वीर तूर्को का ही आत्‍मोत्‍सर्ग है, जिसने यूरोप में इस्‍लाम की तौहीद फैलाई। आज सोपिया के गिरजे में तूझे अल्‍लाह-अकबर की सदा सुनाई दे रही है, सारा यूरोप इस्‍लाम का स्‍वागत करने को तैयार है। क्‍या यह कारनामे इसी लायक हैं कि उनका यह इनाम मिले। इस खयाल को दिल से निकाल दे कि तू खूरेजी से इस्‍लाम की खिदमत कर रहा है। एक दिन तूझे भी परवरदिगार के सामने कर्मो का जवाब देना पडेगा और तेरा कोई उज्र न सुना जाएगा, क्‍योंकि अगर तूझमें अब भी नेक और बद की कमीज बाकी है, तो अपने दिल से पूछ। तूने यह जिहाद खुदा की राह में किया या अपनी हविस के लिए और मैं जानता हू, तूझे जसे जवाब मिलेगा, वह तेरी गर्दन शर्म से झुका देगा।

     खलीफा अभी सिर झुकाए ही थी की यजदानी ने कापते हुए शब्‍दों में अर्ज की-जहापनाह, यह गुलाम का लडका है। इसके दिमाग में कुछ पितूर है। हुजूर इसकी गुस्‍ताखियों को मुआफ करें । मैं उसकी सजा झेलने को तैयार हूँ।

     तैमूर उस युवक के चेहरे की तरफ स्‍िथर नेत्रों से देख रहा था। आप जीवन में पहली बार उसे निर्भीक शब्‍दों के सुनने का अवसर मिला। उसके सामने बडे-बडे सेनापतियों, मंत्रियों और बादशाहों की जबान न खुलती थी। वह जो कुछ कहता था, वही कानून था, किसी को उसमें चू करने की ताकत न थी। उसका खुशामदों ने उसकी अहम्‍मन्‍यता को आसमान पर चढा दिया था। उसे विश्‍वास हो गया था कि खुदा ने इस्‍लाम को जगाने और सुधारने के लिए ही उसे दुनिया में भेजा है। उसने पैगम्‍बरी का  दावा तो नहीं किया, पर उसके मन में यह भावना दढ हो गई थी, इसलिए जब आज एक युवक ने प्राणों का मोह छोडकर उसकी कीर्ति का परदा खोल दिया, तो उसकी चेतना जैसे जाग उठी। उसके मन में क्रोध और हिंसा की जगह ऋद्वा का उदय हुआ। उसकी आंखों का एक इशारा इस युवक की जिन्‍दगी का चिराग गुल कर सकता था । उसकी संसार विजयिनी शक्‍ित के सामने यह दुधमुहा बालक मानो अपने नन्‍हे-नन्‍हे हाथों से समुद्र के प्रवाह को रोकने के लिए खडा हो। कितना हास्‍यास्‍पद साहस था उसके साथ ही कितना आत्‍मविश्‍वास से भरा हुआ। तैमूर को ऐसा जान पडा कि इस निहत्‍थे बालक के सामने वह कितना निर्बल है। मनुष्‍य मे ऐसे साहस का एक ही स्‍त्रोत हो सकता है और वह सत्‍य पर अटल विश्‍वास है। उसकी आत्‍मा दौडकर उस युवक के दामन में चिपट जाने ‍के लिए अधीर हो गई। वह दार्शनिक न था, जो सत्‍य में शंका करता है वह सरल सैनिक था, जो असत्‍य को भी विश्‍वास के साथ सत्‍य बना देता है।

     यजदानी ने उसी स्‍वर में कहा-जहापनाह, इसकी बदजबानी का खयाल न फरमावें।

     तैमूर ने तुरंत तख्‍त से उठकर यजदानी को गले से लगा लिया और बोला-काश, ऐसी गुस्‍ताखियों और बदजबानियों के सुनने का पहने इत्‍तफाक होता, तो आज इतने बेगुनाहों का खून मेरी गर्दन पर न होता। मूझे इस जबान में किसी फरिश्‍ते की रूह का जलवा नजर आता है, जो मूझ जैसे गुमराहों को सच्‍चा रास्‍ता दिखाने के लिए भेजी गई है। मेरे दोस्‍त, तुम खुशनसीब हो कि ऐस फरिश्‍ता सिफत बेटे के बाप हो। क्‍या मैं उसका नाम पूछ सकता हूँ।

     यजदानी पहले आतशपरस्‍त था, पीछे मुसलमान हो गया था , पर अभी तक कभी-कभी उसके मन में शंकाए उठती रहती थीं कि उसने क्‍यों इस्‍लाम कबूल किया। जो कैदी फासी के तख्‍ते पर खडा सूखा जा रहा था कि एक क्षण में रस्‍सी उसकी गर्दन में पडेगी और वह लटकता रह जाएगा, उसे जैसे किसी फरिश्‍ते ने गोद में ले लिया। वह गदगद कंठ से बोला-उसे हबीबी कहते हैं।

     तैमूर ने युवक के सामने जाकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे ऑंखों से लगाता हुआ बोला-मेरे जवान दोस्‍त, तुम सचमुच खुदा के हबीब हो, मैं वह गुनाहगार हू, जिसने अपनी जहालत में हमेशा अपने गुनाहों को सवाब समझा,  इसलिए कि मुझसे कहा जाता था, तेरी जात बेऐब है। आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्‍लाम को कितना नुकसान पहुचा। आज से मैं तुम्‍हारा ही दामन पकडता हू। तुम्‍हीं मेरे खिज्र, तुम्‍ही मेंरे रहनुमा हो। मुझे यकीन हो गया कि तुम्‍हारें ही वसीले से मैं खुदा की दरगाह तक पहुच सकता हॅ।

     यह कहते हुए उसने युवक के चेहरे पर नजर डाली, तो उस पर शर्म की लाली छायी हुई थी। उस कठोरता की जगह मधुर संकोच झलक रहा था।

     युवक ने सिर झुकाकर कहा- यह हुजूर की कदरदानी है, वरना मेरी क्‍या हस्‍ती है।

     तैमूर ने उसे खीचकर अपनी बगल के तख्‍त पर बिठा दिया और अपने सेनापति को हुक्‍म दिया, सारे तुर्क कैदी छोड दिये जाए उनके हथियार वापस कर दिये जाए और जो माल लूटा गया है, वह सिपाहियों में बराबर बाट दिया जाए।

     वजीर तो इधर इस हुक्‍म की तामील करने लगा, उधर तैमूर हबीब का हाथ पकडे हुए अपने  खीमें में गया और दोनों मेहमानों की दावत का प्रबन्‍ध करने लगा। और जब भोजन समाप्‍त हो गया, तो उसने अपने जीवन की सारी कथा रो-रोकर कह सुनाई, जो आदि से अंत तक मिश्रित पशुता और बर्बरता के कत्‍यों से भरी हुई थी। और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्‍वरीय आदेश का पालन कर रहा है। वह खुदा को कौन मुह दिखाएगा। रोते-रोते हिचकिया बध गई।

     अंत में उसने हबीब से कहा- मेरे जवान दोस्‍त अब मेरा बेडा आप ही पार लगा सकते हैं। आपने राह दिखाई है तो मंजिल पर पहुचाइए। मेरी बादशाहत को अब आप ही संभाल सकते हैं। मूझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्‍ते पर लिए जाता था । मेरी आपसे यही इल्‍तमास (प्रार्थना) है कि आप उसकी वजारत कबूल करें। देखिए , खुदा के लिए इन्‍कार न कीजिएगा, वरना मैं कहीं का नहीं रहूगा।

     यजदानी ने अरज की-हुजूर इतनी कदरदानी फरमाते हैं, तो आपकी इनायत है, लेकिन अभी इस लडके की उम्र ही क्‍या है। वजारत की खिदमत यह क्‍या अंजाम दे सकेगा । अभी तो इसकी तालीम के दिन है।

     इधर से इनकार होता रहा और उधर तैमूर आग्रह करता रहा। यजदानी इनकार तो कर रहे थे, पर छाती फूली जाती थी । मूसा आग लेने गये थे, पैगम्‍बरी मिल गई। कहा मौत के मुह में जा रहे थे, वजारत मिल गई, लेकिन यह शंका भी थी कि ऐसे अस्‍िथर चिंत का क्‍या ठिकाना आज खुश हुए, वजारत देने को तैयार है, कल नाराज हो गए तो जान की खैरियत नही। उन्‍हें हबीब की लियाकत पर भरोसा था, पिर भी जी डरता था कि वीराने देश में न जाने कैसी पडे, कैसी न पडे। दरबारवालों में षडयंत्र होते ही रहते हैं। हबीब नेक है, समझदार है, अवसर पहचानता है; लेकिन वह तजरबा कहा से लाएगा, जो उम्र ही से आता है।

उन्‍होंने इस प्रश्‍न पर विचार करने के लिए एक दिन की मुहलत मांगी और रूखसत हुए।

2

 

बीब यजदानी का लडका नहीं लडकी थी। उसका नाम उम्‍मतुल हबीब था। जिस वक्‍त यजदानी और उसकी पत्‍नी मुसलमान हुए, तो लडकी की उम्र कुल बारह साल की थी, पर प्रकति ने उसे बुदी और प्रतिभा के साथ विचार-स्‍वातंस्‍य भी प्रदान किया था। वह जब तक सत्‍यासत्‍य की परीक्षा न कर लेती, कोई बात स्‍वीकार न करती। मां-बाप के धर्म-परिवर्तन से उसे अशांति तो हुई, पर जब तक इस्‍लाम की दीक्षा न ले सकती थी। मां-बाप भी उस पर किसी तरह का दबाब न डालना चाहते थे। जैसे उन्‍हें अपने धर्म को बदल देने का अधिकार है, वैसे ही उसे अपने धर्म पर आरूढ रहने का भी अधिकार है। लडकी को संतोष हुआ, लेकिन उसने इस्‍लाम और जरथुश्‍त धर्म-दोनों ही का तुलनात्‍मक अध्‍ययन आरंभ किया और पूरे दो साल के  अन्‍वेषण और परीक्षण के बाद उसने भी इस्‍लाम की दीक्षा ले ली। माता-पिता फूले न समाए। लड़की उनके दबाव से मुसलमान नहीं हुई है, बल्‍ि‍क स्‍वेच्‍छा से, स्‍वाध्‍याय से और ईमान से। दो साल तक उन्‍हें जो शंका घेरे रहती थी , वह मिट गई।

     यजदानी के कोई पुत्र न था और उस युग में जब कि आदमी की तलवार ही सबसे बड़ी अदालत थी, पुत्र का न रहना संसार का सबसे बड़ा दुर्भाग्‍य था। यजदानी बेटे का अरमान बेटी से पूरा करने लगा। लड़कों ही की भाति उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वह बालकों के से कपड़े पहनती, घोड़े पर सवार होती, शस्‍त्र-विधा सीखती और अपने बाप के साथ अक्‍सर खलीफा बायजीद के महलों में जाती और राजकुमारी के साथ शिकार खेलने जाती। इसके साथ ही वह दर्शन, काव्‍य, विज्ञान और अध्‍यात्‍म का भी अभ्‍यास करती थी। यहां तक कि सोलहवें वर्ष  में वह फौजी विधालय में दाखिल हो गई और दो साल के अन्‍दर वहा की सबसे ऊची परीक्षा पारा करके फौज में नौकर हो गई। शस्‍त्र-विधा और सेना-संचालन कला में इतनी निपुण थी और खलीफा बायजीद उसके चरित्र से इतना प्रसन्‍न था कि पहले ही पहल उसे एक हजारी मन्‍सब मिल गया ।

     ऐसी युवती के चाहनेवालों की क्‍या कमी। उसके साथ के कितने ही अफसर, राज परिवार के के कितश्‍ने ही युवक उस पर प्राण देते थे , पर कोई उसकी नजरों में न जाचता था । नित्‍य ही निकाह के पैगाम आते थे , पर वह हमेशा इंकार कर देती थी। वैवाहिक जीवन ही से उसे अरूचि थी । कि युवतियां कितने अरमानों से व्‍याह कर लायी जाती हैं और पिर कितने निरादर से महलों में बन्‍द कर दी जाती है। उनका भाग्‍य पुरूषों की दया के अधीन है।

     अक्‍सर ऊचे घरानों की महिलाओं से उसको मिलने-जुलने का अवसर मिलता था। उनके मुख से उनकी करूण कथा सुनकर वह वैवाहिक पराधीनता से और भी धणा करने लगती थी। और यजदानी उसकी स्‍वाधीनता में बिलकुल बाधा न देता था। लड़की स्‍वाधीन है, उसकी इच्‍छा हो, विवाह करे या क्‍वारी रहे, वह अपनी-आप मुखतार है। उसके पास पैगाम आते, तो वह साफ जवाब दे देता मैं इस बार में कुछ नहीं जानता, इसका फैसला वही करेगी।

     यधपि एक युवती का पुरूष वेष में रहना, युवकों से मिलना-जुलने , समाज में आलोचना का विषय था, पर यजदानी और उसकी स्‍त्री दोनों ही को उसके सतीत्‍व पर विश्‍वास था, हबी‍ब के व्‍यवहार और आचार में उन्‍हें कोई ऐसी बात नजर न आती थी, जिससे उष्‍न्‍हें किसी तरह की शंका होती। यौवन की आधी और लालसाओं के तूफान में वह चौबीस वर्षो की वीरबाला अपने हदय की सम्‍पति लिए अटल और अजेय खड़ी थी , मानों सभी युवक उसके सगे भाई हैं।

3

 

कु

स्‍तुनतुनिया में कितनी खुशियां मनाई गई, हवीब का कितना सम्‍मान और स्‍वागत हुआ, उसे कितनी बधाईयां मिली, यह सब लिखने की बात नहीं शहर तवाह हुआ जाता था। संभव था आज उसके महलों और बाजारों से आग की लपटें निकलती होतीं। राज्‍य और नगर को उस कल्‍पनातीत विपति से बचानेवाला आदमी कितने आदर, प्रेम श्रद्वा और उल्‍लास का पात्र होगा, इसकी तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती । उस पर कितने फूलों और कितश्‍ने लाल-जवाहरों की वर्षा हुई इसका अनुमान तो कोई ‍कवि ही कर सकता है और नगर की महिलाए हदय के अक्षय  भंडार से असीसें निकाल-निकालकर उस पर लुटाती थी और गर्व से फूली हुई उसका मुहं निहारकर अपने को धन्‍य मानती थी । उसने देवियों का मस्‍तक ऊचा कर दिया ।

     रात को तैमूर के प्रस्‍ताव पर विचार होने लगा। सामने गदेदार कुर्सी पर यजदानी था- सौभ्‍य, विशाल और तेजस्‍वी। उसकी दाहिनी तरफ  सकी पत्‍नी थी, ईरानी लिबास में, आंखों में दया और विश्‍वास  की ज्‍योति भरे हुए। बायीं तरफ उम्‍मुतुल हबीब थी, जो इस समय रमणी-वेष में मोहिनी बनी हुई थी, ब्रहचर्य के तेज से दीप्‍त।

     यजदानी ने प्रस्‍ताव का विरोध करते हुए कहा मै अपनी तरफ से कुछ नहीं कहना चाहता , लेकिन यदि मुझे सलाह दें का अधिकार है, तो मैं स्‍पष्‍ट कहता हूं कि तुम्‍हें इस प्रस्‍ताव को कभी स्‍वीकार न करना चाहिए , तैमूर से यह बात बहुत दिन तक छिपी नहीं रह सकती कि तुम क्‍या हो। उस वक्‍त क्‍या परिस्‍थिति होगी , मैं नहीं कहता। और यहां इस विषय में जो कुछ टीकाए होगी, वह तुम मुझसे ज्‍यादा जानती हो। यहा मै मौजूद था और कुत्‍सा को मुह न खोलने देता था पर वहा तुम अकेली रहोगी और कुत्‍सा को मनमाने, आरोप करने का अवसर मिलता रहेगा।

     उसकी पत्‍नी स्‍वेच्‍छा को इतना महत्‍व न देना चाहती थी । बोली मैने सुना है, तैमूर निगाहों का अच्‍छा आदमी नहीं है। मै किसी तरह तुझे न जाने दूगीं। कोई बात हो जाए तो सारी दुनिया हंसे। यों ही हसनेवाले क्‍या कम हैं।

     इसी तरह स्‍त्री-पुरूष बड़ी देर तक ऊचं नीच सुझाते और तरह-तरह की शंकाए करते रहें लेकिन हबीब मौन साधे बैठी हुई थी। यजदानी ने समझा , हबीब भी उनसे सहमत है। इनकार की सूचना देने के लिए ही थी कि ‍हबीब ने पूछा आप तैमूर से क्‍या कहेंगे।

     यही जो यहा तय हुआ।

     मैने तो अभी कुछ नहीं कहा,

     मैने तो समझा , तुम भी हमसे सहमत हो।

     जी नही। आप उनसे जाकर कह दे मै स्‍वीकार करती हू।

     माता ने छाती पर हाथ रखकर कहा- यह क्‍या गजब करती है बेटी। सोच दुनिया क्‍या कहेगी।

     यजदानी भी सिर थामकर बैठ गए , मानो हदय में गोली लग गई हो। मुंह से एक शब्‍द भी न निकला।

     हबीब त्‍योरियों पर बल डालकर बोली-अम्‍मीजान , मै आपके हुक्‍म से जौ-भर भी मुह नहीं फेरना चाहती। आपकों पूरा अख्‍ितयार है, मुझे जाने दें या न दें लेकिन खल्‍क की खिदमत का ऐसा मौका शायद मुझे जिंदगी में पिर न मिलें । इस मौके को हाथ से खो देने का अफसोस मुझे उम्र भर रहेगा । मुझे यकीन है कि अमीन तैमूर को मैं अपनी दियानत, बेगरजी और सच्‍ची वफादारी से इन्‍सान बना सकती है और शायद उसके हाथों खुदा के बंदो का खून इतनी कसरत से न बहे। वह दिलेर है, मगर बेरहम नहीं । कोई दिलेर आदमी बेरहम नहीं हो सकता । उसने अब तक जो कुछ किया है, मजहब के अंधे जोश में किया है। आज खुदा ने मुझे वह मौका दिया है कि मै उसे दिखा दू कि मजहब खिदमत का नाम है, लूट और कत्‍ल का नहीं। अपने बारे में मुझे मुतलक अंदेशा नहीं है। मै अपनी हिफाजत आप कर सकती  हूँ । मुझे  दावा है कि उपने फर्ज को नेकनीयती से अदा करके मै दुश्‍मनों की जुबान भी बन्‍द कर सकती हू, और मान लीजिए मुझे नाकामी भी हो, तो क्‍या सचाई और हक के लिए कुर्बान हो जाना जिन्‍दगीं की सबसे शानदार फतह नहीं है। अब तक मैने जिस उसूल पर जिन्‍दगी बसर की है, उसने मुझे धोखा नहीं दिया और उसी के फैज से आज मुझे यह दर्जा हासिल हुआ है, जो बड़े-बड़ो के लिए जिन्‍दगी का ख्‍वाब है। मेरे आजमाए हुए दोस्‍त मुझे कभी धोखा नहीं दे सकते । तैमूर पर मेरी हकीकत खुल भी जाए, तो क्‍या खौफ । मेरी तलवार मेरी हिफाजत कर सकती है। शादी पर मेरे ख्‍याल आपको मालूम है। अगर मूझे कोई ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे मेरी रूह कबूल करती हो, जिसकी जात अपनी हस्‍ती खोकर मै अपनी रूह को ऊचां उठा सकूं, तो मैं उसके कदमों पर गिरकर अपने को उसकी नजर कर दूगीं।

     यजदानी ने खुश होकर बेटी को गले लगा लिया । उसकी स्‍त्री इतनी जल्‍द आश्‍वस्‍त न हो सकी। वह किसी तरह बेटी को अकेली न छोड़ेगी । उसके साथ वह जाएगी।

 

4

 

ई महीने गुजर गए। युवक हबीब तैमूर का वजीर है, लेकिन वास्‍तव में वही बादशाह है। तैमूर उसी की आखों से देखता है, उसी के कानों से सुनता है और उसी की अक्‍ल से सोचता है। वह चाहता है, हबीब आठों पहर उसके पास रहे।उसके सामीप्‍य में उसे स्‍वर्ग का-सा सुख मिलता है। समरकंद में एक प्राणी भी ऐसा नहीं, जो उससे जलता हो। उसके बर्ताव ने सभी को मुग्‍ध कर लिया है, क्‍योंकि वह इन्‍साफ से जै-भर भी कदम नहीं हटाता। जो लोग उसके हाथों चलती हुई न्‍याय की चक्‍की में पिस जातें है, वे भी उससे सदभाव ही रखते है, क्‍योकि वह न्‍याय को जरूरत से ज्‍यादा कटु नहीं होने देता।

     संध्‍या हो गई थी। राज्‍य कर्मचारी जा चुके थे । शमादान में मोम की बतियों जल रही थी। अगर की सुगधं से सारा दीवानखाना महक रहा था। हबीब उठने ही को था कि चोबदार ने खबर दी-हुजूर जहापनाह तशरीफ ला रहे है।

     हबीब इस खबर से कुछ प्रसन्‍न नहीं हुआ। अन्‍य मंत्रियों की भातिं वह तैमूर की सोहबत का भूखा नहीं है। वह हमेशा तैमूर से दूर रहने की चेष्‍टा करता है। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि उसने शाही दस्‍तरखान पर भोजन किया हो। तैमूर की मजलिसों में भी वह कभी शरीक नहीं होता। उसे जब शांति मिलति है, तब एंकात में अपनी माता के पास बैठकर दिन-भर का माजरा उससे कहता है और वह उस पर अपनी पंसद की मुहर लगा देती है।

     उसने द्वार पर जाकर तैमूर का स्‍वागत किया। तैमूर ने मसनद पर बैठते हुए कहा- मुझे ताज्‍जुब होता है कि तुम इस जवानी में जाहिदों की-सी जिंदगी कैसे बसर करते हो ‍हबीब । खुदा ने तुम्‍हें वह हुस्‍न दिया है कि हसीन-से-हसीन नाजनीन भी तुम्‍हारी माशूक बनकर अपने को खुश्‍नसीब समझेगी। मालूम नहीं तुम्‍हें खबर है या नही, जब तुम अपने मुश्‍की घोड़े पर सवार होकर निकलते हो तो समरकंद की खिड़कियों पर हजारों आखें तुम्‍हारी एक झलक देखने के लिए मुंतजिर बैठी रहती है, पर तुम्‍हें किसी तरफ आखें उठाते नहीं देखा । मेरा खुदा गवाह है, मै कितना चाहता हू कि तुम्‍हारें कदमों के नक्‍श पर चलू। मैं चाहता हू जैसे तुम दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग रहते हो , वैसे मैं भी रहूं लेकिन मेरे पास न वह दिल है न वह दिमाग । मैं हमेशा अपने-आप पर, सारी दुनिया पर दात पीसता रहता हू। जैसे मुझे हरदम खून की प्‍यास लगी रहती है , तुम  बुझने नहीं देतें , और यह जानते हुए भी कि तुम जो कुछ करते हो, उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं कर सकता , मैं अपने गुस्‍से को काबू में नहीं कर सकता । तुम जिधर से निकलते हो, मुहब्‍बत और रोशनी फैला देते हो। जिसकों तुम्‍हारा दुश्‍मन होना चाहिए , वह तुम्‍हारा दोस्‍त है। मैं जिधर से निकलता नफरत और शुबहा फैलाता हुआ निकलता हू। जिसे मेरा दोस्‍त होना चाहिए वह भी मेरा दुश्‍मन है। दुनिया में बस एक ही जगह है, जहा मुझे आपियत मिलती है। अगर तुम मुझे समझते हो, यह ताज और तख्‍त मेरे रांस्‍ते के रोड़े है, तो खुदा की कसम , मैं आज इन पर लात मार दूं। मै आज तुम्‍हारे पास यही दरख्‍वास्‍त लेकर आया हू कि तुम मुझे वह रास्‍ता दिखाओ , जिससे मै सच्‍ची खुशी पा सकू । मै चाहता हूँ , तुम इसी महल में रहों ताकि मै तुमसे सच्‍ची जिंदगी का सबक सीखूं।

     हबीब का हदय धक से हो उठा । कहीं अमीन पर नारीत्‍व का रहस्‍य खुल तों नहीं गया। उसकी समझ में न आया कि उसे क्‍या जवाब दे। उसका कोमल हदय तैमूर की इस करूण आत्‍मग्‍लानि पर द्रवित हो गया । जिसके नाम से दुनिया काप‍ती है, वह उसके सामने एक दयनीय प्राथी बना हुआ उसके प्रकाश की भिक्षा मांग रहा है। तैमूर की उस कठोर विकत शुष्‍क हिंसात्‍मक मुद्रा में उसे एक स्‍िनग्‍ध मधुर ज्‍योति दिखाई दी, मानो उसका जागत विवेक भीतर से झाकं रहा हो। उसे अपना ‍जीवन, जिसमें ऊपर की स्‍फूर्ति ही न रही थी, इस विफल उधोग के सामने तुच्‍छ जान पड़ा।

     उसने मुग्‍ध कंठ से कहा- हजूर इस गुलाम की इतनी कद्र करते है, यह मेरी खुशनसीबी है, लेकिन मेरा शाही महल में रहना मुनासिब नहीं ।

     तैमूर ने पूछा क्‍यों

     इसलिए कि जहा दौलत ज्‍यादा होती है, वहा डाके पड़ते हैं और जहा कद्र ज्‍यादा होती है , वहा दुश्‍मन भी ज्‍यादा होते है।

     तुम्‍हारी भी कोई दुश्‍मन हो सकता है।

     मै खुद अपना दुश्‍मन हो जाउ गा । आदमी का सबसे बड़ा दुश्‍मन गरूर है।

     तैमूर को जैसे कोई रत्‍न मिल गया। उसे अपनी मनतुष्‍िट का आभास हुआ। आदमी का सबसे बड़ा दुश्‍मन गरूर है इस वाक्‍य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा-तुम मेरे काबू में कभी न आओगें हबीब। तुम वह परंद हो, जो आसमान में ही उड़ सकता है। उसे सोने के पिंजड़े में भी रखना चाहो तो फड़फड़ाता रहेगा। खैर खुदा हापिज।

     यह तुरंत अपने महल की ओर चला, मानो उस रत्‍न को सुरक्षित स्‍थान में रख देना चाहता हो। यह वाक्‍य पहली बार उसने न सुना था पर आज इससे जो ज्ञान, जो आदेश जो सत्‍प्रेरणा उसे मिली, उसे मिली, वह कभी न मिली थी।

5

 

स्‍तखर के इलाके से बगावत की खबर आयी है। हबीब को शंका है कि तैमूर वहा पहुचकर कहीं कत्‍लेआम न कर दे। वह शातिंमय उपायों से इस विद्रोह को ठंडा करके तैमूर को दिखाना चाहता है कि सदभावना में कितनी शक्‍ित  है। तैमूर उसे इस मुहिम पर नहीं भेजना चाहता लेकिन हबीब के आग्रह के सामने ‍बेबस है। हबीब को जब और कोई युक्‍ित न सूझी तो उसने कहा- गुलाम के रहते हुए हुजूर अपनी जान खतरे में डालें यह नहीं हो सकता ।

     तैमूर मुस्‍कराया-मेरी जान की तुम्‍हारी जान के मुकाबले में कोई हकीकत नहीं है हबी‍ब ।पिर मैने तो कभी जान की परवाह न की। मैने दुनिया में कत्‍ल और लूट के सिवा और क्‍या यादगार छोड़ी । मेरे मर जाने पर दुनिया मेरे नाम को रोएगी नही, यकीन मानों । मेरे जैसे लुटेरे हमेशा पैदा हाते रहेगें , लेकिन खुदा न करें, तुम्‍हारे दुश्‍मनों को कुछ हो गया, तो यह सल्‍तश्‍नत खाक में मिल जाएगी, और तब मुझे भी सीने में खंजन चुभा लेने के सिवा और कोई रास्‍ता न रहेगा। मै नहीं कह सकता हबाब तुमसे मैने कितना पाया। काश, दस-पाच साल पहले तुम मुझे मिल जाते, तो तैमूर तवारीख में इतना रूसियाह न होता। आज अगर जरूरत पड़े, तो मैं अपने जैसे सौ तैमूरों को तुम्‍हारे ऊपर निसार कर दू । यही समझ  लो कि मेरी रूह‍ को अपने साथ लिये जा रहे हो। आज मै तुमसे कहता हू हबीब कि मुझे तुमसे इश्‍क है इसे मै अब जान पाया हूं । मगर इसमें क्‍या बराई है कि मै भी तुम्‍हारें साथ चलू।

     हबीब ने धड़कते हुए हदय से कहा- अगर मैं आपकी जरूरत समझूगा तो इतला दूगां।

     तैमूर के दाढ़ी पर हाथ रखकर कहा जैसी-तुम्‍हारी मर्जी लेकिन रोजाना कासिद भेजते रहना, वरना शायद मैं बेचैन होकर चला जाऊ।

     तैमूर ने कितनी मुहब्‍बत से हबीब के सफर की तैयारियां की। तरह-तरह के आराम और तकल्‍लुफी की चीजें उसके लिए जमा की। उस कोहिस्‍तान में यह चीजें कहा मिलेगी। वह ऐसा संलग्‍न था, मानों माता अपनी लड़की को ससुराल भेज रही हो।

     जिस वक्‍त हबीब फौज के साथ चला, तो सारा समरकंद उसके साथ था और तैमूर आखों पर रूमाल रखें , अपने तख्‍त पर ऐसा सिर झुकाए बैठा था, मानों कोई पक्षी आहत हो गया हो।

 

6

 

स्‍तखर अरमनी ईसाईयों का इलाका था, मुसलमानों ने उन्‍हें परास्‍त करके वहां अपना अधिकार जमा लिया था और ऐसे नियम बना दिए थे, जिससे ईसाइयों को पग-पग अपनी पराधीनता का स्‍मरण होता रहता था। पहला नियम जजिये का था, जो हरेक ईसाई को देना पड़ता ‍था, जिससे मुसलमान मुक्‍त थे। दूसरा नियम यह था कि गिजों में घंटा न बजे। तीसरा नियम का क्रियात्‍मक विरोध किया और जब मुसलमान अधिकारियों ने शस्‍त्र-बल से काम लेना चाहा, तो ईसाइयों ने बगावत कर दी, मुसलमान सूबेदार को कैद कर लिया और किले पर सलीबी झंडा उड़ने लगा।

     हबीब को यहा आज दूसरा दिन है पर इस समस्‍या को कैसे हल करे।

     उसका उदार हदय कहता था, ईसाइयों पर इन बंधनों का कोई अर्थ नहीं । हरेक धर्म का समान रूप से आदर होना चाहिए , लेकिन मुसलमान इन कैदो को हटा देने पर कभी राजी न होगें । और यह लोग मान भी जाए तो तैमूर क्‍यों मानने लगा। उसके धामिर्क विचारों में कुछ उदारता आई है, पिर भी वह इन कैदों को उठाना कभी मंजूर न करेगा, लेकिन क्‍या वह ईसाइयों को सजा दे कि वे अपनी धार्मिक स्‍वाधीनता के लिए लड़ रहे है। जिसे वह सत्‍य समझता है, उसकी हत्‍या कैसे करे। नहीं, उसे सत्‍य का पालन करना होगा, चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो। अमीन समझेगें मै जरूरत से ज्‍यादा बढ़ा जा रहा हू। कोई मुजायका नही।

     दूसरे दिन हबीब ने प्रात काल डंके की चोट ऐलान कराया- जजिया माफ किया गया, शराब और घण्‍टों पर कोई कैद नहीं है।

     मुसलमानों में तहलका पड़ गया। यह कुप्र है, हरामपरस्‍तह है। अमीन तैमूर ने जिस इस्‍लाम को अपने खून से सीचां , उसकी जड़ उन्‍हीं के वजीर हबीब पाशा के हाथों खुद रही है, पासा पलट गया। शाही फौज मुसलमानों से जा मिल । हबीब ने इस्‍तखर के किले में पनाह ली। मुसलमानों की ताकत शाही फौज के मिल जाने से बहुंत बढ़ गई थी। उन्‍होनें किला घेर लिया और यह समझकर कि हबीब ने तैमूर से बगावत की है, तैमूर के पास इसकी सूचना देने और परिस्‍थिति समझाने के लिए कासिद भेजा।

 

7

 

धी रात गुजर चुकी थी। तैमूर को दो दिनों से इस्‍तखर की कोई खबर न मिली थी। तरह-तरह की शंकाए हो रही थी। मन में  पछतावा हो रहा था कि उसने क्‍यों हबीब को अकेला जाने दिया । माना कि वह बड़ा नीतिकुशल है , ‍पर बगावत कहीं जोर पकड़ गयी तो मुटटी भर आदमियों से वह क्‍या कर सकेगा ।और बगावत यकीनन जोर पकड़ेगी । वहा के ईसाई बला के सरकश है। जब उन्‍हें मालम होगा कि तैमूर की तलवार में जगं लग गया और उसे अब महलों की जिन्‍दगीं पसन्‍द है, तो उनकी हिम्‍मत दूनी हो जाएगी। हबीब कहीं दूश्‍मनों से घिर गया, तो बड़ा गजब हो जाएगा।

     उसने अपने जानू पर हाथ मारा और पहलू बदलकर अपने ऊपर झुझलाया । वह इतना पस्‍वहिम्‍मत क्‍यों हो गया। क्‍या उसका तेज और शौर्य उससे विदा हो गया । जिसका नाम सुनकर दुश्‍मन में कम्‍पन पड़ जाता था, वह आज अपना मुह छिपाकर महलो में बैठा हुआ है। दुनिया की आखों में इसका यही अर्थ हो सकता है कि तैमूर अब मैदान का शेर नहीं , कालिन का शेर हो गया । हबीब फरिश्‍ता है, जो इन्‍सान की बुराइयों से वाकिफ नहीं। जो रहम और साफदिली और बेगरजी का  देवता है, वह क्‍या जाने इन्‍सान कितना शैतान हो सकता है । अमन के दिनों में तो ये बातें कौम और मुल्‍क को तरक्‍की के रास्‍त पर ले जाती है पर जंग में , जबकि शैतानी जोश का तूपान उठता है इन खुशियों की गुजाइंश नही । उस वक्‍त तो उसी की जीत होती है , जो इन्‍सानी खून का रंग खेले, खेतों खलिहानों को जलाएं , जगलों को बसाए और बस्‍ितयों को वीरान करे। अमन का कानून जंग के कानून से जूदा है।

सहसा चौकिदार ने इस्‍तखर से एक कासिद के आने की खबर दी। कासिद ने जमीन चूमी और एक किनारें अदब से खड़ा हो गया। तैमूर का रोब ऐसा छा गया कि जो कुछ कहने आया था, वह भूल गया।

तैमूर ने त्‍योरियां चढ़ाकर पूछा- क्‍या खबर लाया है। तीन दिन के बाद आया भी तो इतनी रात गए।

कासिद ने पिर जमीन चूमी और बोला- खुदावंद वजीर साहब ने जजिया मुआफ कर दिया ।

तैमूर गरज उठा- क्‍या कहता है, जजिया माफ कर दिया।

हाँ खुदावंद।

किसने।

वजीर साहब ने।

किसके हुक्‍म से।

अपने हुक्‍म से हुजूर।

हूँ।

और हुजूर , शराब का भी हुक्‍म हो गया है।

हूँ।

गिरजों में घंटों बजाने का भी हुक्‍म हो गया है।

हूँ।

और खुदावंद ईसाइयों से मिलकर मुसलमानों पर हमला कर दिया ।

तो मै क्‍या करू।

हुजूर हमारे मालिक है। अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहा एक मुसलमान भी जिन्‍दा न बचेगा।

हबीब पाशा इस वक्‍त कहाँ है।

इस्‍तखर के किले में हुजूर ।

और मुसलमान क्‍या कर रहे है।

हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है।

उन्‍हीं के साथ हबीब को भी।

हाँ हुजूर , वह हुजूर से बागी हो गए।

और इसलिए मेरे वपादार इस्‍लाम के खादिमों ने उन्‍हें कैद कर रखा है। मुमकिन है, मेरे पहुचते-पहुचते उन्‍हें कत्‍ल भी कर दें। बदजात, दूर हो जा मेरे सामने से। मुसलमान समझते है, हबीब मेरा नौकर है और मै उसका आका हूं। यह गलत है, झूठ है। इस सल्‍तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना गुलाम है। उसके फैसले में तैमूर दस्‍तंदाजी नहीं कर सकता । बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए। मुझे मजाज नहीं कि दूसरे मजहब वालों से उनके ईमान का तावान लू। कोई मजाज नहीं है, अगर मस्‍िजद में अजान होती है, तो कलीसा में घंटा क्‍यों बजे। घंटे की आवाज में कुफ्र नहीं है। कापिर  वह है, जा दूसरों का हक छीन ले जो गरीबों को सताए, दगाबाज हो, खुदगरज हो। कापिर वह नही, जो मिटटी या पत्‍थर क एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों मे, दरख्‍तों और झाडि़यों में खुदा का जलवा पाता हो। यह हमसे और तुझसे ज्‍यादा खुदापरस्‍त है, जो मस्‍िदज में खुदा को बंद नहीं समझता ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बदें है, सब । बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुचेगा।

कासिद हतबुद्वि सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फौजें किसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगी।

 

 

8

 

ती

सरे दिन तैमूर इस्‍तखर पहुचा,  तो किले का मुहासरा उठ चुका था। किले की तोपों ने उसका स्‍वागत किया। हबीब ने समझा, तैमूर ईसाईयों को सजा देने आ रहा है। ईसाइयों के हाथ-पाव फूले हुए थे , मगर हबीब मुकाबले के लिए ‍तैयार था। ईसाइयों के स्‍वप्‍न की रक्षा में यदि जान भी जाए,  तो कोई गम नही। इस मुआमले पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है,तो उसका जवाब तलवार से दिया जाएगा।

मगर यह क्‍या बात है। शाही फौज सफेद झंडा दिखा रही है। तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है। उसका स्‍वागत दूसरी तरह का होगा। ईसाई सरदारों को साथ लिए हबीब किले के बाहर निकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था। हबीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमूर घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और बोला-मैं सब सुन चुका हू हबीब। तुमने बहुत अच्‍छा किया और वही किया जो तुम्‍हारे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था। मुझे जजिया लेने का या ईसाईयों से मजहबी हक छीनने का कोई मजाज न था। मै आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूगा और तब मै एक ऐसी तजवीज बताऊगा ख्‍ जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है और मुझे उम्‍मीद है कि तुम उसे मंजूर कर लोगें। मंजूर करना पड़ेगा।

हबीब के चेहरे का रंग उड़ गया था। कहीं हकीकत खुल तो नहीं गई। वह क्‍या तजवीज है, उसके मन में खलबली पड़ गई।

तैमूर ने मूस्‍कराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे।

हबीब ने शरमाते हुए कहा- हक के सामने अमीन तैमूर की भी कोई हकीकत नही।

बेशक-बेशक । तुममें फरिश्‍तों का दिल है,तो शेरों की हिम्‍मत भी है, लेकिन अफसोस यही है कि तुमने यह गुमान ही क्‍यों किया कि तैमूर तुम्‍हारे फैसले को मंसूख कर सकता है। यह तुम्‍हारी जात है, जिसने तुझे बतलाया है कि सल्‍तनश्‍त किसी आदमी की जायदाद नही बल्‍िक एक ऐसा दरख्‍त है, जिसकी हरेक शाख और पती एक-सी खुराक पाती है।

दोनों किले में दाखिल हुए। सूरज डूब चूका था । आन-की-बान में दरबार लग गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्‍वीकार किया।

चारों तरफ से आवाज आई- खुदा हमारे शाहंशाह की उम्र दराज करे।

तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा-दोस्‍तों , मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ। जो चीज मैने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वालस देकर मै दुआ का काम नहीं कर रहा हू। इससे कही ज्‍यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दे कि मैने इतने दिनों तक से आवाज आई-मरहबा। मरहबा।

दोस्‍तों उन हको के साथ-सा‍थ मैं आपकी सल्‍तश्‍नत भी आपको वापस करता हू क्‍योंकि खुदा की निगाह में सभी इन्‍सान बराबर है और किसी कौम या शख्‍स को दूसरी कौम पर हुकूमत करने का अख्‍ितयार नहीं है। आज से आप अपने बादशाह है। मुझे उम्‍मीद है कि आप भी मुस्‍िलम आजादी को उसके जायज हको से महरूम न करेगें । मगर कभी ऐसा मौका आए कि कोई जाबिर कौम आपकी आजादी छीनने की कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने को हमेशा तैयार रहेगा।

 

9

 

कि

ले में जश्‍न खत्‍म हो चुका है। उमरा और हुक्‍काम रूखसत हो चुके है। दीवाने खास में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गए है। हबीब के मुख पर आज स्‍िमत हास्‍य की वह छटा है,जो सदैव गंभीरता के नीचे दबी रहती थी। आज उसके कपोंलो पर जो लाली, आखों में जो नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह और कभी नजर न आई थी। वह कई बार तैमूर से शोखिया कर चुका है, कई बार हंसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को भूलकर चहकती पिरती है।

सहसा तैमूर ने कहा- हबीब, मैने आज तक तुम्‍हारी हरेक बात मानी है। अब मै तुमसे यह मजवीज करता हू जिसका मैने जिक्र किया था, उसे तुम्‍हें कबूल करना पड़ेगा।

हबीब ने धड़कते हुए हदय से सिर झुकाकर कहा- फरमाइए।

पहले वायदा करो कि तुम कबूल करोगें।

मै तो आपका गुलाम हू।

नही तुम मेरे मालिक हो, मेरी जिन्‍दगी की रोशनी हो, तुमसे मैने जितना फैज पाया है, उसका अंदाजा नहीं कर सकता । मैने अब तक सल्‍तनत को अपनी जिन्‍दगी की सबसे प्‍यारी चीज समझा था। इसके लिए मैने वह सब कुछ किया जो मुझे न करना चाहिए था। अपनों के खून से भी इन हाथों को दागदार किया गैरों के खून से भी। मेरा काम अब खत्‍म हो चुका। मैने बुनियाद जमा दी इस पर महल बनाना तुम्‍हारा काम है। मेरी यही इल्‍तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीन हो जाओ, मेरी जिन्‍दगी में भी और मरने के बाद भी।

हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा- इतना बड़ा बोझ। मेरे कंधे इतने मजबूत नही है।

तैमूर ने दीन आग्रह के स्‍वर में कहा- नही मेरे प्‍यारे दोस्‍त, मेरी यह इल्‍तजा माननी पड़ेगी।

हबीब की आखों में हसी थी, अधरों पर संकोच । उसने आहिस्‍ता से कहा- मंजूर है।

तैमूर ने प्रफुल्‍िलत स्‍वर में कहा खुदा तुम्‍हें सलामत रखे।

लेकिन अगर आपको मालूम हो जाए कि हबीब एक कच्‍ची अक्‍ल की क्‍वारी बालिका है तो।

तो व‍ह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जाएगी।

आपको बिलकुल ताज्‍जुब नहीं हुआ।

मै जानता था।

कब से।

जब तुमने पहली बार अपने जालिम आखों से मुझें देखा ।

मगर आपने छिपाया खूब।

तुम्‍हीं ने सिखाया । शायद मेरे सिवा यहा किसी को यह बात मालूम नही।

आपने कैसे पहचान लिया।

तैमूर ने मतवाली आखों से देखकर कहा- यह न बताऊगा।

यही हबीब तैमूर की बेगम हमीदों के नाम से मशहूर है।


धिक्कार

 

 

नाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलम्‍ब न था । वह पांच वर्ष की थी, जब पिता का देहांत हो गया। माता ने किसी तरह उसका पालन किया । सोलह वर्ष की अवस्‍था मकं मुहल्‍लेवालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया पर साल के अंदर ही माता और ‍पति दोनों विदा हो गए। इस विपति में उसे उपने चचा वंशीधर के सिवा और कोई नज़र न आया, जो उसे आश्रय  देता । वंशीधर ने अब तक  जो व्‍यवहार किया था, उससे यह आशा न हो सकती थी कि वहां वह शांति के साथ रह सकेगी पर वह सब कुछ सहने और सब कुछ करने को तैयार थी । वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर संदेह तो न करेगा, उस पर मिथ्‍या लांछन तो न लगेगा, शोहदों और लुच्‍चों से तो उसकी रक्षा होगी । वंशीधर को कुल मर्यादा की कुछ चिन्‍ता हुई । मानी की वाचना को अस्‍वीकार न कर सके ।

     लेकिन दो चार महीने में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका निबाह न होगा । वह घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश करती पर न जाने क्‍यों चचा और चची दोनों उससे जलते रहते । उसके आते ही महरी अलग कर दी गई । नहलाने-धुलाने के लिए एक लौंडा था उसे भी जवाब दे दिया गया पर मानी से इतना उबार होने पर भी चचा और चची न जाने क्‍यों उससे मुंह फुलाए रहते । कभी चचा घुड़कियां जमाते, कभी चची कोसती, यहां तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर उसे गालियां देती । घर-भर में केवल उसक चचेरे भाई गोकुल ही को उससे सहानुभूति थी । उसी की बातों में कुछ स्‍नेह का परिचय मिलता था । वह उपनी माता का स्‍वभाव जानता था। अगर वह उसे समझाने की चेष्‍टा करता, या खुल्‍लमखुल्‍ला मानी का पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में रहना कठिन हो जाता, इसलिए उसकी सहानुभुति मानी ही को दिलासा देने तक रह जाती थी । वह कहता-बहन, मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, ‍िफर तुम्‍हारे कष्‍टों का अंत हो जाएगा । तब देखूंगा, कौन तुम्‍हें तिरछी आंखों से देखता है । जब तक पढ़ता हूं, तभी तक तुम्‍हारे बुरे दिन हैं । मानी यह स्‍नेह में डूबी हुई बात सुनकर पुलकित हो जाती और उसका रोआं-रोआं गोकुल को आशीर्वाद देने लगता ।

 

2

 

ज ललिता का विवाह है । सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। गहनों की झनकार से घर गूंज रहा है । मानी भी मेहमानों को देख-देखकर खुश हो रही है । उसकी देह पर कोई आभूषण नहीं है और न ठसे सुन्‍दर कपड़े ही दिए गए हैं, ‍िफर भी उसका मुख प्रसन्‍न है।

     आधी रात हो गई थी । विवाह का मुहूर्त निकट आ गया था। जनवासे से पहनावे की चीजें आईं । सभी औरतें उत्‍सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं । ललिता को आभूषण पहिनाए जाने लगे । मानी के हदय में बड़ी इच्‍छा हुई कि जाकर वधू को देखे । अभी कल जो बालिका थी, उसे आज वधू वेश में देखने की इच्‍छा न रोक सकी । वह मुस्‍काती हुई कमरे में घुसी। सहसा उसकी चची ने झिड़ककर कहा-तुझे यहां किसने बुलाया था, निकल जा यहां से ।

     मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएं सही थीं, पर आज की वह झिड़की उसके हदय में बाण की तरह चुभ गई । उसका मन उसे धिक्‍कारने लगा । तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्‍कार है । यहां सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्‍या जरूरत थी वह खिसियाई हुई कमरे से निकली और एकांत में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी । सहसा जीने पर उसी इंद्रनाथ से मुठभेड़ हो गई । इंद्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था वह भी न्‍यैते में आया हुआ था । इस वक्‍त गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था । मानी को वह दो-बार देख चुका था और यह भी जानता था कि यहां बड़ा दुर्व्‍यवहार किया जाता है । चची की बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गई थी । मानी को ऊर जाते देखकर वह उसके चित का भाव समझ गया और उसे सांत्‍वना देने के लिए ऊपर आया, मगर दरवाजा भीतर से बंद था । उसने किवाड़ की दरार से भीतर झांका । मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी ।

     उसने धीरे से कहा-मानी,  द्वार खोल दो।

मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गई और गम्‍भीर स्‍वर में बोली-क्‍या काम है ?

     इंद्रनाथ ने गदगद स्‍वर में कहा-तुम्‍हारे पैरों पड़ता हूं मानी, खोल दो ।

यह स्‍नेह में डूबा हुआ हुआ विनय मानी के लिए अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई उससे ऐसे विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना न की थी । मानी ने कांपते हुए हाथों से द्वारा खोल दिया । इंद्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत से पुखे के कड़े से एक रस्‍सी लटक रही है । उसका हदय कांप उठा। उसने तुरन्‍त जेब से चाकू निकालकर रस्‍सी काट दी और बोला-क्‍या करने जा रही थीं मानी ? जानती हो, इस अपराध का क्‍या दंड है ?

     मानी ने गर्दन झुकाकर कहा-इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है ? जिसकी सूरत से लोगों का घणा है, उसे मरने के लिए भी अगर कठोर दंड दिया जाए, तो मैं यही कहूंगी कि ईश्‍वर के दरबार में न्‍याय का नाम भी नहीं है ।

     इन्द्रनाथ की आंखे सजल हो गईं । मानी की बातों में कितना कठोर सत्‍य भ्‍ंरा हुआ था । बोला-सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी । अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्‍हारा कोई नहीं है, तो यह तुम्‍हार भ्रम है । संसार में कम-से-कम एक मनुष्‍य ऐसा है, जिसे तुम्‍हारे प्राण आने प्राणों से भी प्‍यारे हैं ।

     सहसा गोकुल आता हुआ दिखाई दिया । मानी कमरे से निकल गई 1 इन्‍द्रनाथ के शब्‍दों से उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया । उसका क्‍या आशय है, यह उसकी समझ में न आया ।  ‍िफर भी आज उसे अपना जीवन सार्थ्‍क मालूक हो रहा था । उसके अन्‍धकारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय हो गया था ।

3

 

न्‍द्रनाथ को वहां बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को कुछ खटक गया । उसकी त्‍योरियां बदल गईं । कठोर स्‍वर में बोला-तुम यहां कब आये ?

     इद्रंनाथ ने अविचलित भाव से कहा-तुम्‍हीं को खोजता हुआ यहां आया था। तुम यहां न मिले तो नीचे लौटा जा रहा था, अगर चला गया होता तो इस वक्‍त तुम्‍हें यह कमरा बन्‍द मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती ।

गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध के छिपाने के लिए कोई बहाना निकाल रहा है । ती‍व्र कंठ से बोला-तुम यह विश्‍वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी ।

     इन्‍द्रनाथ का चेहरा लाल हो गया । वह आवेश में आकार खड़ा हो गया और बोला-न मुझे यह आशा थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन रख दोगे । मुझे ने मालुम था कि तुम मुझे इतना नीच और कुटिल समझते हो । मानी तुम्‍हारे लिए तिरस्‍कार की वस्‍तु हो, मेरे लिए वह श्रद्धा की वस्‍तु है और रहेगी । मुझे तुम्‍हारे सामने अनी सफाई देने की जरूरत नहीं है, लेकिन मानी केरे लिए उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो । मैं नहीं चाहता था कि इस वक्‍त ‍तुमसे उससे ये बातें कहूं । इसके लिए और अनूकूल परि‍‍स्‍थतियों की राह देख रहा था, लेकिन मुआमला आ पड़ने परकहना ही पड़ रहा है । मैं यह तो जानता था कि मानी का तुम्‍हारे घर में कोई आदर नहीं, लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्‍याज्‍य समझते हो, यह कि आज तुम्‍हारी माताजी की बातें सुनकर मालूम हुआ । केवल इतनी-सी बात के लिए वह चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्‍हारी माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे कोई कुत्‍ते को भी न भिड़केगा । तुम कहोगे, इसमें मैं क्‍या करूं, मैं कर ही क्‍या सकता हूं । जिस घर में एक अनाथ स्‍त्री पर इतना अत्‍याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम है । अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती । तुम इस इलजाम से नहीं बच सकते । तुम्‍हारे घर में आज उत्‍सव है, मैं तुम्‍हारे माता-पिता से कुछ नहीं बातचीत नहीं कर सकता, लेकिन तुमसे कहने में संकोच नहीं हे कि मानी को को मैं अपनी जीवन सहचरी बनाकर अपने को धन्‍य समझूंगा । मैंने समझा था, उपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्‍ताव करूंगा पर मुझे भय है कि और विलम्‍ब करने में शायद मानी से हाथ धोना पड़े, इसलिए तुम्‍हें और तुम्‍हारें घर वालों को चिन्‍ता से मुक्‍त करने के लिए मैं आज ही यह प्रस्‍ताव किए देता हूं ।

     गोकुल के हदय में इंद्रनाथा के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी । उस पर ऐसा सन्‍देह करके वह बहुत ही ल‍‍‍ज्‍जत हुआ । उसने यह अनुभव भी किया कि माता के भय से मैं मानी के विषय में तटस्‍थ रहकर कायरता का दोषी हुआ हूं । यह केवल कायरता थी और कुछ नहीं । कुछ झेंपता हुआ बोला-अगर अम्‍मां ने मानी को इस बात पर झिड़का तो वह उनकी मूर्खता है। मैं उनसे अवसर मिलते ही पूछूँगा ।

इन्‍द्रनाथ-अब पूछने-पाछने का समय निकल गया । मैं चाहता हूं कि तुम मानी से इस विषय में सलाह करके मुझे बतला दो । मैं नहीं चाहता कि अब वह यहां क्षण-भर भी रहे । मुझे आज मालूम हुआ कि वह गर्विणी प्रकति की स्‍त्री है और सच पूछो तो मैं उसके स्‍वभाव पर मुग्‍ध हो गया हूं । ऐसी स्‍त्री अत्‍याचार नहीं सह सकती ।

     गोकुल ने डरते-डरते कहा-लेकिन तुम्‍हें मालूम है, वह विधवा है ?

     जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं, तो हम अपनी सारी बुराइयों उसके सामने खोलकर रख देते हैं । हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कपा के सर्वथा योग्‍य नहीं है ।

     इन्‍द्रनाथ ने मुस्‍कराकर कहा-जानता हूं सुन चुका हूं और इसीलिए तुम्‍हारे बाबूजी से कुछ कहने का मुझे अब तक साहस नहीं हुआ । लेकिन न जानता तो भी इसका मेरे निश्‍चय पर कोई अवसर न पड़ता । मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गयी-बीती अगर कुछ अगर कुछ हो सकती है, वह भी हो, ‍‍ फिर भी मेरे लिए वह रमणी-रत्‍न है । हम छोटे-छोटे कामों के लिए तजुर्बेकार आदमी खोजते हैं, जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजुर्बे का होना ऐब समझते हैं । मैं न्‍याय का गला घोटनेवालो में नहीं। विपति से बढ़कर तजुर्बा सिखाने वालो कोई विद्वालय आज तक नही खुला। जिसने इस विद्वालय में डिग्री ले ली, उसके हाथों में हम होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं । किसी रमणी का विधा होना मेरी आंखों में दोष नहीं, गुण है।

     गोकुल ने पूछा-अगर तुम्‍हारे घरवाले आप‍ति करें तो ?

     इन्‍द्रनाथ न प्रसन्‍न होकर कहा-मैं अपने घरवालों को इतना मुर्ख नहीं समझता कि इस विषय में आपति करें, लेकिन वे आपति करें भी तो मैं अपनी किस्‍मत अपने हाथ में ही रखना पसंद करता हूं । मेरे बड़ों को मुझपर अनेकों अधिकार हैं । बहुत-सी बातों में मैं उनकी इच्‍छा को कानून समझता हूं, लेकिन जिस बात को मैं अपनी आत्‍मा के विकास के लिए शुभ समझता हूं,  उसमें मैं किसी से दबना नहीं चाहता । मैं इस गर्व का आनन्‍द

उठाना चाहता हूं कि मैं स्‍वयं अपने जीवन का निर्माता हूं ।

     गोकुल ने कुछ शंकित होकर कहा-और मानी न मंजूर करे ।

     इन्‍द्रनाथ को यह शंका बिलकुल निर्मल जान पड़ी । बोले-तुम इस समय बच्‍चों की-सी बात कर रहे हो गोकुल । यह मानी हुई बात है मानी आसनी से मंजूर न करेगी । वह इस घर में ठोकरे, झिड़कियॉं सहेगीण्‍ गालियॉं सुनेगी, पर इसी घर में रहेगी। युगों के संस्‍कारों को ‍मिटा देना आसन नहीं है, लेकिन हमें उसका राजी करना पड़गा । उसके मन से संचित संस्‍कारों को निकालना पड़ेगा । हमें विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में नहीं हूँ। मेरा ख्‍याल है कि पतिव्रत का यह अलौकिक आदर्श संसार का अमूल्‍य  रत्‍न है और हमें बहुत सोच-समझकर उस पर आघात करना चाहिए, लेकिन मानी के विषय में यह बात नहीं उठती । प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, व्‍यक्‍ति से होती है । जिस पुरूष से उसने सूरत भी नीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता । केवल रस्‍म की बात है। इस आडम्‍बर की, इस दिखावे की, हमें परवाह नह करनी चाहिए । देखो, शायद कोई तुम्‍हें ‍बुला रहा है । मैं भी जा रहा हूं । दो-तीन दनि में ‍फिर मिलूंगा, मगर ऐसा न हो कि तुम संकोच में पड़कर सोचते-विचारते रह जाओ और दिन निकलते चले जाएं ।

     गोकुल ने उसके गले में हाथ डालकर कहा-मैं परसों खुद ही आऊंगा ।

 

4

 

बा

रात ‍विदा हो गई थी । मेहमान भी रूखसत हो गए । रात के नौ बज गए ‍थे । विवाह के बाद की नींद मशहूर है । घर के सभी लोग सरेशाम से सो रहे थे । कोई चरपाई पर, कोई तख्‍त पर, कोई जमीन पर, जिसे जहां जगह मिल गई, वहीं सो रहा था । केवल मानी घर की देखभाल कर रही थी और ऊपर गोकुल अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार पढ़ रहा था।

     सहसा गोकुल ने पुकारा-मानी, एक ग्‍लास ठंडा पानी तो लाना, प्‍यास लगी है।

     मानी पानी लेकर ऊपर गई और मेज पर पानी रखकर लौटना ही चाहती थी कि गोकुल ने कहा-जरा ठहरो मानी, तुमसे कुछ कहना है ।

मानी ने कहा-अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है । कहीं कोई घुस आए तो लोटा-थाली भी न बचे ।

     गोकुल ने कहा-घुस आने दो, मैं तुम्‍हारी जगह होता, तो चोरों से मिलकर चोरी करवा देता । मुझे इसी वक्‍त इन्‍द्रनाथ से मिलना है । मैंने उससे आज मिलने का वचन दिया है-देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूं, उसका लल्‍द उतर देना । देर होगी तो वह घबराएगा । इन्‍द्रनाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम जानती हो न ?

     मानी ने मुंह फेरकर कह-यही बात कहने के लिए मुझे बुलाया था ? मैं कुछ नहीं जानती।

     गोकुल-खैर, यह वह जाने या तुम जानो । वह तुमसे विवाह करना चाहता है। वैदिक रीति से विवाह होगा । तुम्‍हें स्‍वीकार है ?

     मानी की गर्दन शर्म से झुक गई । वह कुछ जवाब न दे सकी ।

     गोकुल ने ‍‍फिर कहा-दादा और अम्‍मां से यह बात नहीं कही गई, इसका कारण तुम जानती ही हो । वह तुम्‍हें घुड़कियां दे-देकर जला-जलाकर चाहे मार डालें, पर विवाह करने की सम्‍मति कभी नह देंगे। इससे उनकी नाक कट जाऐगी, इसलिए अब इसका निर्णय तुम्‍हारे ही ऊपर है । मैं तो समझता हूं, तुम्‍हें स्‍वीकार कर लेना चाहिए । इंद्रनाथ तुमसे प्रेम करता ही हैं, यों भी निष्‍कलंक चरित्र आदमी और बला का दिलेर है 1 भय तो उसे छू ही नहीं गया । तुम्‍हें सुखी देखकर मुझे सच्‍चा आन्‍नद होगा ।

     मानी के हदय में एक वेग उठ रहा था, मगर मुंह से आवाज न निकली ।

     गोकुल ने अबी खीझकर कहा-देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है । क्‍या सोचती हो ?मानी ने कांपते स्‍वर में कहा-हां ।

गोकुल के हदय का बोझ हल्‍का हो गया । मुस्‍काने लगा । मानी शर्म के मारे वहा भाग गई ।

5

 

शा

म को गोकुल ने अपनी मां से कहा-अम्‍मा, इंद्रनाथ्‍ंा के घर आज कोइ उत्‍सव है । उसकी माता अकेली घबड़ा रही थी कि कैसे सब काम होगा, मैंने कहा, मैं मानी को कल भेज दूंगा । तुम्‍हारी आज्ञा हो, तो मानी का पहुंचा दूँ। कल-परसों तक चली आयेगी।

     मानी उसी वक्‍त वहां आ गई, गोकुल ने उसकी ओर कनखियों से ताका । मानी लज्‍जा से गड़ गई । भागने का रास्‍ता न मिला ।

     मां ने कहा-मुझसे क्‍या पूछती हो, वह जाय, ले जाओ ।

     गोकुल ने मानी से कहा-कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ, तुम्‍हें इंद्रनाथ के घर चलना है ।

     मानी ने आपत्ति की-मेरा जी अच्‍छा नहीं है, मैं न जाऊंगी।

गोकुल की मां ने कहा-चली क्‍यों नहीं जाती, क्‍या वहां कोई पहाड़ खोदना है?

     मानी एक सफेद साड़ी पहनकर तांगे पर बैठी, तो उसका हदय कांप रहा था और बार-बार आंखों में आंसू भर आते थे । उकसा हदय बैठा जाता था, मानों नदी में डुबन जा रही हो।

     तांगा कुछ दुर निकल गया तो उसने गोकुल से कहा-भैया, मेरा जी न जाने कैस हो रहा है । घर चलो, तुम्‍हारे पैर पड़ती ।

     गोकुल ने कहा-तू पागल है । वहां सब लोग तेरी राह देख रहे हैं और तू कहती है लौट चलो ।

     मानी-मेरा मन कहता है, कोई अनिष्‍ट होने वाला है ।

     गोकुल-और मेरा मन कहता है तू रानी बनने जा रही है ।

     मानी-दस-पांच दिन ठहर क्‍यों नहीं जाते ? कह देना, मानी बीमार है।

     गोकुल-पागलों की-सी बातें न करो ।

     मानी-लोग कितना-हंसेंगे ।

     गोकुल-मैं शुभ कार्य कें किसी की हॅसी की परवाह नहीं करता ।

     मानी-अम्‍मॉ तुम्‍हें घर में घुसने न देंगी । मेरे कारण तुम्‍हें भी झिड़कियॉ मिलेंगी ।

     गोकुल-इसकी कोई परवाह नहीं है । उसकी तो यह आदत ही है ।

     तॉंगा पहुंच गया । इंद्रनाथ की माता विचारशील महिला थीं । उन्‍होंन आकर वधू को उतारा और भीतर ले गयीं ।

 

6

 

गो

कुल वहां से घर चला तो ग्‍यारह बज रहे थे । एक ओर तो शुभ कार्य के पूरा करने का आनंद था, दूसरी ओर भय था कि कल मानी न जाएगी, तो लोगों को क्‍या जवाब दूंगा । उसने निश्‍चय किया, चलकर साफ-साफ कह दूं। छिपाना व्‍यर्थ है । आज नहीं कल, कल नहीं परसों तो सब-कुछ कहना ही पड़ेगा । आज ही क्‍यों न कह दूं ।

     यह निश्‍चय करके घर में दाखिल हुआ ।

     माता ने किवाड़ खोलते हुए कहा-इतनी रात तक क्‍या करने लगे ? उसे भी क्‍यों न लेते आये ? कल सवेरे चौका-बर्तन कौन करेगा ?

     गोकुल ने सिर झुकाकर कहा-वह तो अब शायद लोटकर न आये अम्‍मा,  उसके वहीं रहने का प्रबंध हो गया है।

     माता ने आंखे फाड़कर कहा-क्‍या बकता है, भला वह वहां कैसे रहेगी?

     गोकुल-इंद्रनाथ से उसका विवाह हो गया है ।

     माता मानो आकाश से गिर पड़ी । उन्‍हें कुछ सुध न रही कि मेंरे मुंह से क्‍या निकल रहा है, कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, न जाने क्‍या-क्‍या कहा । यहां तक कि गोकुल का धैर्य चरमसीमा का उल्‍लंघन कर गया । उसका मुंह लाल हो गया, त्‍योरियॉ चढ़ गई, बोला-अम्‍मा, बस करो। अब, मुझमें इससे ज्‍यादा सुनने की सामर्थ्‍य नहीं है । अगर मैंन कोई अनुचित कर्म किया होता, तो अपकी जूतियां खकार भी सिर न उठाता, मगर मैंने कोई अनुचित कर्म नहीं किया । मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेंरा कर्तव्‍य था और जो हर एक भले आदमी का करना चाहिए । तुम मूर्खा हो, तुम्‍हें नहीं मालूम कि समय की क्‍या प्रगति । इसीलिए अब तक मैनें धैर्य के साथ् तुम्‍हारी गालियॉ सुनी । तुमने, और मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि पिताजी ने भी, मानी के जीवन का नारकीय बना रखा था । तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाऍ दीं, जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा । इसीलिए न कि वह तुम्‍हारी आश्रित थी ? इसी लिए न कि वह अनाथिन थी ? अब वह तुम्‍हारी गालियॉ  खाने न आएगी । जिस दिन तुम्‍हारे घर विवाह का उत्‍सव हो रहा था, तुम्‍हारे ही एक कठोर वाक्‍य से आहत होकर वह आत्‍महत्‍या करने जा रही थी। इंद्रनाथ उस समय ऊपर न पहुंच जाते तो आज हम, तुम, सारा घर हवालात में बैठा होता ।

     माता ने आंखे मटकाकर कहा-आहा । कितने सपूत बेटे हो तुम, कि सारे घर को संकट से बचा लिया । क्‍यों न हो ? अभी बहन की बारी है । कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले में बांध आना । ‍फिर तुम्‍हारी चांदी हो जायेगी । यह रोजगार सबसे अच्‍छा है । पढ़ लिखकर क्‍या करोगे ?

     गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा । व्‍यथित कंठ से बोला-ईश्‍वर न करे कि कोई बालक तुम जैसी माता के गर्भ से जन्‍म ले । तुम्‍हारा मुंह देखना भी पाप है ।

     यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्‍मत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ । जोर से झोंके चल रहे थे, पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि सॉस लेने ‍के लिए हवा नहीं है ।

 

7

 

क सप्‍ताह बीत गया पर गोकुल का कहीं पता नहीं। इंद्रनाथ को बम्‍बई में एक जगह मिल गई थी। वह वहां चला गया था। वहां रहने का प्रबंध करके वह अपनी माता को तार देगा और तब सास और बहू चली जाऍगी । वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इंद्रनाथ के घर छिपा होगा, पर जब वहां पता न चला तो उन्‍होंने सारे शहर में खोज-पूछ शुरू की। जितन मिलने वाले, मित्र, स्‍नेही, सम्‍बन्‍धी थे, सभी के घर गये, पर सब जगह से साफ जवाब ‍पाया । दिन-भर दौड़-धूप कर शाम को घर आते, तो स्‍त्री के आड़े हाथों लेते-और कोसो लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो । न जाने तुम्‍हें कभी बु‍द्धि आयेगी भी या नहीं । गयी थी चुड़ैल, जाने देती । एक बोझ सिर से टला । एक महरी रख लो, काम चल जाएगा । जब वह न थी, तो घर क्‍या भूखों मरता था ? विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है । हमारे बस की बात होती, तो विधवा-विवाह के पक्षपातियों को देश से निकाल देते, शाप देकर जला देते, लेकिन यह हमारे बस की बात नहीं । फिर तुमसे इतनी भी न हो सका कि मुझसे तो पूछ लेतीं । मैं जो उचित समझता, करता । क्‍या तुमने समझा था, मैं दप्‍तर से लौटकर आऊंगा ही नहीं, वहीं अत्ये‍षिट हो जाएगी ? बस, लड़के पर टूट पड़ी। अब रोओ, खूब दिल खोलकर।

     संध्या हो गई थी। वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में टहल रहे थे। रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था। इसी राक्षसी के कसरण मेरे घर का सर्वनाश हुआ 1 न जाने किस बुरी साइत में आयी कि घर को मिटाकर छोड़ा । वह न आयी होती, तो आज क्‍यों यह बुरे दिन ‍देखने पड़ते । ‍कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का था । न जाने कहां गया ?

     एकाएक एक बुढिया उनके समीप आयी और बोली-बाबू साहब, यह खत लायी हूं, ले लीजिए ।

     वंशीधर ने लपककर बुढिया के हाथ से पत्र ले लिया,  उनकी छाती आशा से धक-धक करने लगी । गोकुल ने शायद यह पत्र लिखा होगा । अंधेरे में कुछ ने सुझा । पूछा-कहॉ से आयी है ?

     बुढिया ने कहा-वह जो बाबू हुसनेगंज में रहते हैं, जो बम्‍बई में नौकर हैं,  उन्‍हीं की बहु ने भेजा है ।

     वंशीधर ने कमरे में जाकर लैम्‍प जलाया और पत्र पढ़ने लगे । मानी का खत था लिखा था ।

     पूज्‍य चाचाजी, आभागिनी मानी का प्रणाम स्‍वीकार कीजिए ।

     मुझे यह सुनकर अत्‍यन्‍त दु:ख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गए और अब तक उनका पता नहीं है । मैं ही इसका कारण हूं । यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था वह भी लग गया । मेरे कारण आपको इतना शोक हुआ, इसका मुझे बहुत दु:ख है, मगर भैया आएंगे अवश्‍य, इसका मुझे विश्‍वास है । मैं भी नौ बजे वाली गाड़ी से बम्‍बई जा रही हूं । मुझझे जो कुछ अपराध हुआ है, उसे क्षमा कीजिएगा और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा। मेरी ईश्‍वर से यही प्रार्थना है कि शीघ्र ही गोकुल भैया सकुशल घर लौट आयें । ईश्‍वर की अच्‍छा हुई तो भैया के विवाह में आपके चरणों के दर्शन करूंगी ।

     वंशीधर न पत्र को फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला । घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे । तुरन्‍त कपड़े पहने, सड़क पर आकर एक्‍का किया और स्‍टेशन चले ।

8

 

म्‍बई मेल प्‍लेटफार्म पर खड़ा था । मुसा‍फिरों में भगदड़ मची हुई थी। खोमचे वालों की चीख-पुकार से कान पड़ी आवाज न सुनाई देती थी। गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर थी मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में ‍बैठी हुई थी । मानी सजल नेत्रों से सामने ताक रही थी । अतीत चाहे दुख:द ही क्‍यों न हो, उसकी स्‍मतियॉ मधुर होती हैं । मानी आज बुरे दिनों को स्‍मरण करके दु:खी हो रही थी । गोकुल से अब न जाने कब भेंट होगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती । कभी-कभी बिगड़ते थे तो क्‍या, उसके भले ही के लिए तो डांटते थे । वह आवेंगे नहीं । अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर है । कैसे आऍ, समाज में हलचल न मच जाएगी । भगवान की इच्‍छा होगी, तो अबकी जब यहॉ आऊंगी, तो जरूर उनके दर्शन करूंगी ।

     एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा । वह गाड़ी से निकलकर बाहर खड़ी हो गई और चाचाजी की ओर बढ़ी । चरणों पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गए और ऑखे निकालकर बोले-मुझे मत छू, दूर रह, अभगिनी कहीं की । मुंह की कालिख लगाकर मुझे पत्र लिखती है । तुझे मौत नहीं आती । तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया 1 आज तक गोकुल का पता नहीं है । तेरे कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी है । तेरे लिए क्‍या गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे कुलटा, ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन तेरा गला घोंट देता । अब मुझे अपनी भक्‍ति दिखलाने चली है । तेरे जैसी पापिष्‍ठाओं का मरना ही अच्‍छा है, पथ्‍वी का बोझ कम हो जाएगा ।

प्‍लेटफार्म पर सैकड़ो आदमियों की भीड़ लग गई थी और वंशीधर निर्लज्‍ज भाव से गालियों की बौछार कर रहे थे । किसी की समझ में न आता था, क्‍या माजरा है, पर मन से सब लाला को ‍धिक्‍कार रहे ‍थे ।

     मानी पाषाण-मूर्ति के सामान खड़ी थी, मानो वहीं जम गई हो । उसका सारा अभिमान चूर-चूर हो गया । ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाए और मैं समा जाऊं, कोई वज्र गिरकर उसके जीवन-अधम जीवन-का अन्‍त कर दे । इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर गया 1 उसी आंखों से पानी की एक बूंद भी न निकला । हदय में ऑसू न थे । उसकी जग एक दावनल-सा दहक रहा था, जो मानो वेग से मस्‍तिष्‍क की ओर बढ़ता चला जाता था । संसार में कौन जीवन इतना अधम होगा ।

     सास ने पुकारा-बहू, अन्‍दर आ जाओ ।

 

9

 

गा

ड़ी चली तो माता ने कहा-ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा । मुझे तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि उसका मुंह नोच लूं ।

     मानी ने सिर ऊपर न उठाया ।

     माता ‍फिर बोली-न जाने इन सडियलों ‍को बुद्धि कब आएगी, अब तो मरने के दिन भी आ गए । पूछो, तेरा लड़का भाग तो हम क्‍या करें; अगर ऐसे पापी ने होते तो यह वज्र क्‍यों गिरता ।

     मानी ने फिर भी मुंह न खोला । शायद उसे कुछ सुनाई ही न दिया था। शायद उसे अपने असित्‍तव का ज्ञान भी न था । वह टकटकी लगाए खिड़की की ओर ताक रही थी । उस अंधकार में जाने क्‍या सूझ रहा था ।

कानपुर आया । माता ने पूछ-बेटी, कुछ खाओगी ? थोड़ी-सी मिठाई खा लो; दस कब के बज गए ।

     मानी ने कहा-अभी तो भूख नहीं है अम्‍मा, फिर खा लूंगी ।

     माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आंखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें कानों में गूंज रही थीं-आह, मैं इतनी नीच हूं, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से पथ्‍वी का भार हल्‍का हो जाएगा ? क्‍या कहा था, तू अपने मॉ-बाप की बेटी है तो फिर मुंह मत दिखाना । न दिखाऊंगी, जिस मुंह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्‍छा भी नहीं है ।

     गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानी ने अपना टंक खोला और अपने आभषण निकालकर उसमें रख दिए । ‍फिर इंद्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही । उसकी आखों से गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी । उसने तसवीर रख दी और आप-ही-आप बोली-नहीं-नहीं, मैं तुम्‍हारे जीवने को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्‍य हो, तुमन मुझ पर दया की है । मैं अपने पूर्व संस्‍कारों का प्रायश्‍चित कर रही थी । तुमने मुझे उठाकर हदय से लगा लिया; लेकिन मैं तुम्‍हें कलंकित न करूंगी । तुमने मुझसे प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान, निन्‍दा सब स‍ह लोगे; पर मैं तुम्‍हारे जीवन का भार न ‍बनूंगी ।

गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानो आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदय हो गए और उस अन्‍धकार में उसे अपनी माता का स्‍वरूप दिखाई दिया-ऐसा प्रत्‍यक्ष कि उसने चौंककर आंखें बन्‍द कर लीं ।

 

 

 

 

10

 

 जाने कितनी रात गुजर चुकी थी । दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आंखें खुल गईं । गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था वह आखें मलकर उठ बैठी और पुकारा-बहू । बहू । कोई जवाब न मिला।

उसका हदय धक-धक करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखान में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गई । बहू का क्‍या हुआ, यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया । उसका जी घबराने लगा । उसने किवाड़ बन्‍द कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी । किससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी । कहती थी, बहू, मरदानी गाड़ी में बैठें । मेरा कहना न माना । कहने लगी, अम्‍माजी, आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गई।

     सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आई । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये । फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया । किया नीचे तख्‍ते को ध्‍यान से देखा । रक्‍त का कोई चिन्‍ह न था । असबाब की जॉच की । बिस्‍तर, संदूक, संदुकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबसे बंद थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहॉ ? एक स्‍त्री को लेकर गाड़ी से कूद असम्‍भव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया । मानी को कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्‍यादा और क्‍या किया जा सकता था ? माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डब्‍बे में ले गए । यह निश्‍चय हुआ कि माताजी अगले स्‍टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाए ।

     विपत्ति में हम परमुखपेक्षी हो जाते हैं । माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका । उसकी याचना से भरी हुई आंखें मानो सबसे कह रही थीं-कोई मेरी बच्‍ची को खोज क्‍यों नहीं लाता ?हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी । कोई उस दुष्‍ट वंशीधर से जाकर कहता क्‍यों ‍नहीं-ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गई- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया । क्‍या अब भी तेरी छाती नहीं जुडाती ।

     वुद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी ।

 

11

 

विवार का दिन था । संध्‍या समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।

     एक मित्र बोले-क्‍यों इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्‍या सलाह देते हो ? बनाए कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें ? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है ।

     इंद्रनाथ ने मुस्‍कराकर कहा-यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का । अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्‍य है, तो दूसरी दशा में वर्ग में कम नहीं ।

     दूसरे मित्र बोल-इतनी आजादी तो भला क्‍या रहेगी ?

इंद्रनाथइतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।

     श्रीमतीजी,  तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?’

     हॉँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’

     यह भी पूछने की बात है। अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।

     सहमा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।

     इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रूक गई, सिर घूमने लगा। ऑंखों की रोशनी लुप्त हो गई, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हों उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढॉँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे ओर क्या हो गया।

     तार में लिखा थामानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पाई गई। में लालपुर में हूँ, तुरंत आओ।

     एक मित्र ने कहाकिसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो?

     दूसरे मित्र ने बोलेहॉँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हें।

     इंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।

     कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे। एकाएक इंद्रनाथ खड़े हो गए और बोलेमैं इस गाड़ी से जाऊंगा।

     बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छू, टूटती थी। दोनों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ने ट्रंक। इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।

12

 

एक सप्ताह गुजर गया था। लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से निकली हुई आह मूर्तिमान् हो गई हों

     वंशीधर ने पूछातुम तो बम्बई चले गए थे न?

     इंद्रनाथ ने जवाब दियाजी हॉँ, आज ही आया हूँ।

     वंशीधर ने तीखे स्वर में कहागाकुल को तो तुम ले बीते! आये? तुमसे कहॉँ उसकी भेंट हुई? क्या बम्बई चला गया था?

     जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गए।

     तो जाकर लिवी लाओ न, जो किया अच्छा किया।

यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे उंदर बुलाया।

     वह अंदर गया तो माता ने उसे सिर से पॉँव तक देखातुम बीमार थे क्या भैया?

     इंद्रनाथ ने हाथमुँह धोते हुए काहमैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आते।

     और था कहॉँ इतने दिन?’

     कहते थे, देहातों में घूमता रहा।

     तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो?’

     जी नहीं, अम्मॉँ भी आयी हैं।

     गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछामानी तो अच्छी तरह है?

     इंद्रनाथ ने हँसकर कहाजी हॉँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गई।

     माता ने अविश्वास करके कहाजी हॉँ, अब वह बड़े सुख से है। संसार के बंधनों से छूट गई।

     माता ने अविश्वास करके कहाचल, नटखट कँही का! बेचारी को कोस रहा है, मगर जल्दी बम्बई से लौट क्यों आये?

     इंद्रनाथ ने मुस्काते हुए कहाक्या करता! माताजी का तार बम्बई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें दिए। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वहीं दाह-क्रिया कीं आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

     वह और कुछ न कह सका। ऑंसुओ के वेग ने गला बंद कर दियां जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोलाउसके संदूक में यही पत्र मिला है।

     गोकुल की माता कई मितट तक मर्माहतसी बैठी जमीन की ओर ताकती रही! शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी

स्वामी,

     जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक में इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हूँ। मेरे लिए संसार में स्थान नहीं हे। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निन्दा ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा ओर यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही अच्छा हे। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ? जीवन में मेंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की, परन्तु मुझे दु:ख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिए आप शोंक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।

     माताजी ने पत्र रख दिया और ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बरामदे में वीशीधर निस्पंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।

 

 

 

 

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